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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 20: वृन्दावन में वर्षा ऋतु तथा शरद् ऋतु  »  श्लोक 36
 
 
श्लोक  10.20.36 
गिरयो मुमुचुस्तोयं क्‍वचिन्न मुमुचु: शिवम् ।
यथा ज्ञानामृतं काले ज्ञानिनो ददते न वा ॥ ३६ ॥
 
शब्दार्थ
गिरय:—पर्वतों ने; मुमुचु:—मुक्त किया; तोयम्—अपना जल; क्वचित्—कभी कभी; न मुमुचु:—नहीं मुक्त किया; शिवम्— शुद्ध; यथा—जिस तरह; ज्ञान—दिव्य ज्ञान रूपी; अमृतम्—अमृत; काले—उपयुक्त समय पर; ज्ञानिन:—ज्ञानी लोग; ददते— प्रदान करते हैं; न वा—अथवा नहीं ।.
 
अनुवाद
 
 इस ऋतु में पर्वत कभी तो अपना शुद्ध जल मुक्त करते थे और कभी नहीं करते थे जिस तरह कि दिव्य विज्ञान में पटु लोग कभी तो दिव्य ज्ञान रूपी अमृत प्रदान करते हैं और कभी कभी नहीं करते।
 
तात्पर्य
 इस अध्याय के प्रथम भाग में वर्षा ऋतु का वर्णन हुआ है और दूसरे भाग में वर्षा के बाद आनेवाली शरद ऋतु का। वर्षा ऋतु में पर्वतों से जल सदैव बहता रहता है किन्तु शरद ऋतु में कभी बहता है और कभी नहीं भी बहता। इसी तरह महान् सन्त उपदेशक कभी तो आध्यात्मिक ज्ञान के विषय में विस्तार से बतलाते हैं और कभी कभी मौन रहते हैं। स्वरूपसिद्ध व्यक्ति परमात्मा के निकट सम्पर्क में रहता है, अत: परमात्मा की इच्छानुसार पटु आध्यात्मिक विज्ञानी परिस्थिति-विशेष को देखते हुए परब्रह्म के विषय में बातें कर भी सकते हैं और नहीं भी कर सकते।
 
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