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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 20: वृन्दावन में वर्षा ऋतु तथा शरद् ऋतु  »  श्लोक 38
 
 
श्लोक  10.20.38 
गाधवारिचरास्तापमविन्दञ्छरदर्कजम् ।
यथा दरिद्र: कृपण: कुटुम्ब्यविजितेन्द्रिय: ॥ ३८ ॥
 
शब्दार्थ
गाध-वारि-चरा:—छिछले जल में घूमनेवाली; तापम्—कष्ट; अविन्दन्—अनुभव किया; शरत्-अर्क-जम्—शरद ऋतु के सूर्य के कारण; यथा—जिस तरह; दरिद्र:—निर्धन व्यक्ति; कृपण:—कंजूस; कुटुम्बी—पारिवारिक जीवन में मग्न; अविजित- इन्द्रिय:—इन्द्रियों पर संयम न करनेवाला ।.
 
अनुवाद
 
 जिस प्रकार कंजूस तथा निर्धन कुटुम्बी अपनी इन्द्रियों को वश में न रखने के कारण कष्ट पाता है उसी तरह छिछले जल में तैरनेवाली मछलियों को शरदकालीन सूर्य का ताप सहना पड़ता है।
 
तात्पर्य
 पिछले श्लोक के अनुसार यद्यपि बेखबर मछलियों को जल घटने का कोई पता नहीं चल पाता, किन्तु यह सोचा जा सकता है कि तब भी ये मछलियाँ सुखी होंगी क्योंकि कहावत है “अज्ञान वरदान होता है।” किन्तु अज्ञानी मछलियाँ भी शरदकालीन सूर्य के ताप से झुलसने लगती हैं। इसी तरह भले ही कोई आसक्त कुटुम्बी आध्यात्मिक जीवन के प्रति अपने अज्ञान को वरदान माने किन्तु पारिवारिक जीवन की समस्याओं से वह सदैव विचलित होता रहता है और उसकी अनियंत्रित इन्द्रियाँ उसे दरअसल वेदना की स्थिति में डाल देती हैं।
 
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