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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 20: वृन्दावन में वर्षा ऋतु तथा शरद् ऋतु  »  श्लोक 40
 
 
श्लोक  10.20.40 
निश्चलाम्बुरभूत्तूष्णीं समुद्र: शरदागमे ।
आत्मन्युपरते सम्यङ्‍मुनिर्व्युपरतागम: ॥ ४० ॥
 
शब्दार्थ
निश्चल—जड़; अम्बु:—जल; अभूत्—हो गया; तूष्नीम्—शान्त; समुद्र:—समुद्र; शरत्—शरद ऋतु के; आगमे—आगमन से; आत्मनि—जब आत्मा; उपरते—भौतिक कार्यों से विरक्त; सम्यक्—पूरी तरह; मुनि:—मुनि; व्युपरत—त्यागकर; आगम:— वैदिक मंत्रों का पाठ ।.
 
अनुवाद
 
 शरद ऋतु के आते ही समुद्र तथा सरोवर शान्त हो गये, उनका जल उस मुनि की तरह शान्त हो गया जो सारे भौतिक कार्यों से विरत हो गया हो और जिसने वैदिक मंत्रों का पाठ बन्द कर दिया हो।
 
तात्पर्य
 मनुष्य भौतिक उन्नति, योगशक्ति तथा निर्विशेष मोक्ष के हेतु सामान्य वैदिक मंत्रों का पाठ करता है। किन्तु जब मुनि निजी इच्छाओं से पूर्णतया मुक्त होता है, तो वह एकमात्र परमेश्वर के दिव्य यश का उच्चारण करता है।
 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥