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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 20: वृन्दावन में वर्षा ऋतु तथा शरद् ऋतु  »  श्लोक 43
 
 
श्लोक  10.20.43 
खमशोभत निर्मेघं शरद्विमलतारकम् ।
सत्त्वयुक्तं यथा चित्तं शब्दब्रह्मार्थदर्शनम् ॥ ४३ ॥
 
शब्दार्थ
खम्—आकाश; अशोभत—चमकने लगा; निर्मेघम्—बादलों से रहित; शरत्—शरद ऋतु में; विमल—स्वच्छ; तारकम्—तथा तारों से युक्त; सत्त्व-युक्तम्—सात्विक अच्छाई से प्रदत्त; यथा—जिस तरह; चित्तम्—चित्त को; शब्द-ब्रह्म—वैदिक शास्त्र का; अर्थ—तात्पर्य; दर्शनम्—प्रत्यक्ष अनुभव किया जानेवाला ।.
 
अनुवाद
 
 बादलों से रहित तथा साफ दिखते तारों से भरा हुआ शरदकालीन आकाश उसी तरह चमकने लगा, जिस प्रकार वैदिक शास्त्रों के तात्पर्य का प्रत्यक्ष अनुभव करनेवाले की आध्यात्मिक चेतना करती है।
 
तात्पर्य
 स्वच्छ तथा तारों से पूरित शरदकालीन आकाश की उपमा भक्त के शुद्ध हृदय से भी दी जा सकती है। आध्यात्मिक प्रकृति सदैव तेजोमय, स्वच्छ तथा आनन्दमय होती है और वैकुण्ठ कहलाने वाली यह आध्यात्मिक प्रकृति तुरन्त ही आत्मा की सारी इच्छाओं को तुष्ट कर देती है। कृष्णभावनामृत का यही रहस्य है।
 
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