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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 20: वृन्दावन में वर्षा ऋतु तथा शरद् ऋतु  »  श्लोक 48
 
 
श्लोक  10.20.48 
पुरग्रामेष्वाग्रयणैरिन्द्रियैश्च महोत्सवै: ।
बभौ भू: पक्‍वशष्याढ्या कलाभ्यां नितरां हरे: ॥ ४८ ॥
 
शब्दार्थ
पुर—नगरों; ग्रामेषु—तथा ग्रामों में; आग्रयणै:—नवान्न ग्रहण करने के लिए वैदिक यज्ञ सम्पन्न करके; इन्द्रियै:—अन्य (सांसारिक) समारोहों द्वारा; —तथा; महा-उत्सवै:—बड़े बड़े उत्सवों द्वारा; बभौ—सुशोभित हो उठी; भू:—पृथ्वी; पक्व— पका; शष्य—अन्न से; आढ्या—समृद्ध; कला—भगवान् की अंश रूप; आभ्याम्—उन दोनों (कृष्ण तथा बलराम) के साथ; नितराम्—अत्यधिक; हरे:—भगवान् का ।.
 
अनुवाद
 
 सभी नगरों तथा ग्रामों में लोगों ने नई फसल के नवान्न का स्वागत और आस्वादन करने के लिए वैदिक अग्नि-यज्ञ करके तथा स्थानीय प्रथा एवं परम्परा का अनुसरण करते हुए अन्य ऐसे ही समारोहों सहित बड़े-बड़े उत्सव मनाए। इस तरह नवान्न से समृद्ध एवं कृष्ण तथा बलराम की उपस्थिति के कारण विशेषतया सुन्दर दिखने वाली पृथ्वी भगवान् के अंश रूप में सुशोभित हो उठी।
 
तात्पर्य
 अग्रयणै शब्द विशेष प्रामाणिक वैदिक यज्ञ का द्योतक है और इन्द्रियै शब्द लोकोत्सवों का सूचक है, जिनके सांसारिक ध्येय होते हैं।

श्रील प्रभुपाद की टीका इस प्रकार है : “शरद ऋतु में खेत पके अन्न से पूर्ण हो जाते हैं। उस समय लोग फसल को देखकर प्रमुदित हो जाते हैं और अनेक उत्सव मनाते हैं यथा नवान्न जिसमें भगवान् को नये अन्न की भेंट दी जाती है। नवान्न सर्वप्रथम विभिन्न मन्दिरों के अर्चाविग्रहों को भेंट चढ़ाया जाता है और सभी लोगों को बुलाकर इन नवान्नों से बनाई गई खीर खिलाई जाती है। और भी पूजा की विधियाँ और धार्मिक उत्सव हैं, विशेषतया बंगाल में जहाँ सबसे बड़ा उत्सव दुर्गा-पूजा के नाम से मनाया जाता है।”

 
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