दृष्ट्वा—देखकर; आतपे—सूर्य की भरी गर्मी में; व्रज-पशून्—व्रज के पालतू पशु; सह—साथ-साथ; राम-गोपै:—बलराम तथा ग्वालों के; सञ्चारयन्तम्—चराते हुए; अनु—बारम्बार; वेणुम्—वंशी; उदीरयन्तम्—तेजी से बजाते हुए; प्रेम—प्रेमवश; प्रवृद्ध:—बढ़ा हुआ; उदित:—उठकर; कुसुम-आवलीभि:—फूलों के समूहों से (ओस के कणों से युक्त); सख्यु:—अपने मित्रों के लिए; व्यधात्—बनाया; स्व-वपुषा—अपने ही शरीर से; अम्बुद:—बादल ने; आतपत्रम्—छाता ।.
अनुवाद
भगवान् कृष्ण बलराम तथा ग्वालबालों के संग में व्रज के समस्त पशुओं को चराते हुए ग्रीष्म की कड़ी धूप में भी निरन्तर अपनी बाँसुरी बजाते रहते हैं। यह देखकर आकाश के बादल ने प्रेमवश अपने को फैला लिया है। ऊँचे उठकर तथा फूल जैसी असंख्य जल की बूँदों से उसने अपने मित्र के लिए अपने ही शरीर को छाता बना लिया है।
तात्पर्य
श्रील प्रभुपाद ने भगवान् श्रीकृष्ण में कहा है, “कभी कभी शरद की झुलसाती धूप असह्य हो जाती थी अत: कृष्ण तथा बलराम एवं उनके मित्र जब अपनी अपनी वंशी बजाने में व्यस्त रहते तो दयावश उनके ऊपर आकाश में बादल प्रकट हो आते। ये बादल कृष्ण के साथ मैत्री स्थापित करने के लिए उनके सिरों के ऊपर सुखद छाते का काम करते।
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