श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 21: गोपियों द्वारा कृष्ण के वेणुगीत की सराहना  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  10.21.2 
कुसुमितवनराजिशुष्मिभृङ्ग-
द्विजकुलघुष्टसर:सरिन्महीध्रम् ।
मधुपतिरवगाह्य चारयन् गा:
सहपशुपालबलश्चुकूज वेणुम् ॥ २ ॥
 
शब्दार्थ
कुसुमित—पुष्पित; वन-राजि—वृक्षों के समूहों में; शुष्मि—उन्मत्त; भृङ्ग—भौंरे; द्विज—पक्षी; कुल—तथा समूह; घुष्ट—गुंजार करते; सर:—जलाशय; सरित्—नदियाँ; महीध्रम्—तथा पर्वत; मधु-पति:—मधु के स्वामी (कृष्ण); अवगाह्य—प्रवेश करके; चारयन्—चराते हुए; गा:—गौवें; सह-पशु-पाल-बल:—ग्वालबालों तथा बलराम के संग; चुकूज—बजाया; वेणुम्—अपनी वंशी को ।.
 
अनुवाद
 
 वृन्दावन के सरोवर, नदियाँ तथा पर्वत पुष्पित वृक्षों पर मँडराते उन्मत्त भौंरों तथा पक्षियों के समूहों से गुंजरित हो रहे थे। मधुपति (श्रीकृष्ण) ने ग्वालबालों तथा बलराम के संग उस जंगल में प्रवेश किया और गौवें चराते हुए वे अपनी वंशी बजाने लगे।
 
तात्पर्य
 चुकूज वेणुम् शब्दों से यह ध्वनित होता है कि कृष्ण ने बड़ी ही कुशलतापूर्वक अपनी वंशी की ध्वनि तथा वृन्दावन के रंगबिरंगे पक्षियों के कलकूजन को मिला-जुला रखा था। इस तरह आकर्षक दैवी ध्वनि उत्पन्न हो रही थी।
 
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