एवंविधा भगवतो या वृन्दावनचारिण: ।
वर्णयन्त्यो मिथो गोप्य: क्रीडास्तन्मयतां ययु: ॥ २० ॥
शब्दार्थ
एवम्-विधा:—ऐसा; भगवत:—भगवान् का; या:—जो; वृन्दावन-चारिण:—वृन्दावन के जंगल में घूमनेवाला; वर्णयन्त्य:— वर्णन करती हुई; मिथ:—परस्पर; गोप्य:—गोपियों ने; क्रीडा:—लीलाएँ; तत्-मयताम्—उनका भावमय ध्यान; ययु:—प्राप्त किया ।.
अनुवाद
इस तरह वृन्दावन के जंगल में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् द्वारा विचरण से सम्बन्धित क्रीड़ामयी लीलाओं को एक-दूसरे से कहती हुई गोपियाँ उनके विचारों में पूर्णतया निमग्न हो गईं।
तात्पर्य
इस सम्बन्ध में श्रील प्रभुपाद की टीका है, “यह कृष्णभावनामृत का पूर्ण उदाहरण है, जिससे किसी न किसी तरह कृष्ण के विचारों में निमग्न रहा जा सकता है। इसका ज्वलन्त उदाहरण गोपियों के आचरण में उपस्थित होता है इसीलिए चैतन्य महाप्रभु ने घोषित किया कि भगवान् की पूजा करने की सर्वश्रेष्ठ विधि गोपियों की विधि है। गोपियाँ किसी उच्च ब्राह्मण, या क्षत्रिय परिवार में उत्पन्न नहीं हुई थीं। वे वैश्य कुल में उत्पन्न थीं जो कोई बड़ा व्यापारिक वर्ग नहीं था अपितु ग्वालों का परिवार था। वे ठीक से शिक्षित नहीं थीं यद्यपि उन्होंने वैदिक ज्ञान में सिद्ध ब्राह्मणों से सभी प्रकार का ज्ञान सुन रखा था। गोपियों का एकमात्र उद्देश्य कृष्ण के विचारों में सदैव निमग्न रहना था।”
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के दसवें स्कंध के अन्तर्गत “गोपियों द्वारा कृष्ण के वेणुगीत की सराहना” नामक इक्कीसवें अध्याय के श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद के विनीत सेवकों द्वारा रचित तात्पर्य पूर्ण हुए।
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