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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 22: कृष्ण द्वारा अविवाहिता गोपियों का चीरहरण  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  10.22.22 
द‍ृढं प्रलब्धास्त्रपया च हापिता:
प्रस्तोभिता: क्रीडनवच्च कारिता: ।
वस्त्राणि चैवापहृतान्यथाप्यमुं
ता नाभ्यसूयन् प्रियसङ्गनिर्वृता: ॥ २२ ॥
 
शब्दार्थ
दृढम्—बुरी तरह से; प्रलब्धा:—ठगी हुई; त्रपया—अपनी लज्जा से; —तथा; हापिता:—वंचित; प्रस्तोभिता:—मजाक उड़ाई गई; क्रीडन-वत्—गुडिय़ों की तरह; —तथा; कारिता:—करने के लिए बाध्य की गई; वस्त्राणि—उनके वस्त्र; —तथा; एव—निस्सन्देह; अपहृतानि—चुराये हुए; अथ अपि—तो भी; अमुम्—उनके प्रति; ता:—वे; न अभ्यसूयन्—शत्रुभाव नहीं लाईं; प्रिय—अपने प्रियतम का; सङ्ग—साथ करने से; निर्वृता:—हर्षित ।.
 
अनुवाद
 
 यद्यपि गोपियाँ बुरी तरह ठगी जा चुकी थीं, उनके शील-संकोच से उन्हें वंचित किया जा चुका था, उन्हें कठपुतलियों की तरह नचाया गया था और उनका उपहास किया गया था और यद्यपि उनके वस्त्र चुराये गये थे किन्तु उनके मन में श्रीकृष्ण के प्रति रंच-भर भी प्रतिकूल भाव नहीं आया। उल्टे वे अपने प्रियतम के सान्निध्य का यह अवसर पाकर सहज रूप से पुलकित थीं।
 
तात्पर्य
 श्रील प्रभुपाद की टीका है : “गोपियों के इस मनोभाव का वर्णन श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा हुआ है जब वे प्रार्थना करते हैं, ‘हे भगवान् कृष्ण! आप चाहे मेरा आलिंगन करें या अपने पैरों के नीचे रौंद डालें या मेरे समक्ष कभी भी उपस्थित न होकर मेरे हृदय को तोड़ दें। आप जो चाहें सो कर सकते हैं क्योंकि आप कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हैं। किन्तु इतना सब करने पर भी आप सदैव मेरे स्वामी हैं, मेरा कोई दूजा आराध्य नहीं है।’ कृष्ण के प्रति गोपियों का यही मनोभाव है।”
 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥