यद्यपि गोपियाँ बुरी तरह ठगी जा चुकी थीं, उनके शील-संकोच से उन्हें वंचित किया जा चुका था, उन्हें कठपुतलियों की तरह नचाया गया था और उनका उपहास किया गया था और यद्यपि उनके वस्त्र चुराये गये थे किन्तु उनके मन में श्रीकृष्ण के प्रति रंच-भर भी प्रतिकूल भाव नहीं आया। उल्टे वे अपने प्रियतम के सान्निध्य का यह अवसर पाकर सहज रूप से पुलकित थीं।
तात्पर्य
श्रील प्रभुपाद की टीका है : “गोपियों के इस मनोभाव का वर्णन श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा हुआ है जब वे प्रार्थना करते हैं, ‘हे भगवान् कृष्ण! आप चाहे मेरा आलिंगन करें या अपने पैरों के नीचे रौंद डालें या मेरे समक्ष कभी भी उपस्थित न होकर मेरे हृदय को तोड़ दें। आप जो चाहें सो कर सकते हैं क्योंकि आप कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हैं। किन्तु इतना सब करने पर भी आप सदैव मेरे स्वामी हैं, मेरा कोई दूजा आराध्य नहीं है।’ कृष्ण के प्रति गोपियों का यही मनोभाव है।”
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