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श्लोक 10.22.6  |
ऊषस्युत्थाय गोत्रै: स्वैरन्योन्याबद्धबाहव: ।
कृष्णमुच्चैर्जगुर्यान्त्य: कालिन्द्यां स्नातुमन्वहम् ॥ ६ ॥ |
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शब्दार्थ |
ऊषसि—तडक़े; उत्थाय—उठकर; गोत्रै:—नामों से; स्वै:—अपने अपने; अन्योन्य—एक-दूसरे का; आबद्ध—पकडक़र; बाहव:—हाथ; कृष्णम्—कृष्ण की महिमा हेतु; उच्चै:—उच्च स्वर से; जगु:—गाने लगतीं; यान्त्य:—जाते हुए; कालिन्द्याम्— यमुना नदी को; स्नातुम्—स्नान करने के लिए; अनु-अहम्—प्रतिदिन ।. |
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अनुवाद |
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प्रतिदिन वे बड़े तडक़े उठतीं। एक-दूसरे का नाम ले लेकर वे सब हाथ पकडक़र स्नान के लिए कालिन्दी जाते हुए कृष्ण की महिमा का जोर जोर से गायन करतीं। |
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