मार्गशीर्ष मास-भर ग्वालों की कुमारी पुत्रियाँ एक-दूसरे का हाथ पकडक़र कृष्ण का गुणगान करती हुई प्रतिदिन प्रात: यमुना-स्नान करने जाती थीं। कृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने के लिए वे अगुरु, पुष्प तथा अन्य वस्तुओं से देवी कात्यायनी की पूजा किया करती थीं। एक दिन ये गोपियाँ सदैव की भाँति तट पर अपने वस्त्र रखकर कृष्ण के कार्यकलाप का गुणगान करती हुई जल-क्रीड़ा करने लगीं। सहसा कृष्ण वहाँ आये और सारे वस्त्र उठाकर पास के कदम्ब वृक्ष पर चढ़ गये। गोपियों को तंग करने की इच्छा से कृष्ण ने कहा, “मुझे पता है कि तुम लोग अपनी तपस्या से कितनी थक चुकी हो अत: निकलकर तट पर आओ और अपने अपने वस्त्र लो।” तब गोपियों ने ऐसी मुद्रा बनाई मानो क्रुद्ध हों और कहा कि “यमुना का ठंडा जल हमें कष्ट दे रहा है। यदि तुम हमारे वस्त्र हमें नहीं लौटाते तो हम इस घटना की सूचना महाराज कंस को देंगी। किन्तु यदि हमारे वस्त्र लौटा देते हो तो हम तुम्हारी दासी की तरह तुम्हारे आदेश का पालन करेंगी।” श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि “मुझे राजा कंस का तनिक भी डर नहीं है। यदि तुम लोग वास्तव में मेरी आज्ञा मानना चाहती हो और मेरी दासी बनना चाहती हो तो एक-एक करके तट पर आओ और अपने अपने वस्त्र ले लो।” शीत से कँपकँपाती कन्याएँ अपने गुप्तांगों को दोनों हाथों से ढके हुए जल के बाहर आईं। कृष्ण का उनसे अत्यधिक स्नेह था इसलिए वे फिर बोले, “तुम लोगों ने व्रत रखते हुए नग्न होकर जल में स्नान करके देवताओं के प्रति अपराध किया है, अत: इसके निराकरण के लिए तुम दोनों हाथ जोडक़र मुझे नमस्कार करो। तभी तुम्हें तपस्या का पूरा फल प्राप्त होगा।” गोपियाँ श्रीकृष्ण के आदेश को मान गईं और सम्मान में हाथ जोडक़र उनको नमस्कार किया। प्रसन्न होकर उन्होंने उनके वस्त्र लौटा दिये। किन्तु वे कन्याएँ उन पर इतनी अनुरक्त हो चुकी थीं कि वे वहाँ से हट नहीं पा रही थीं। उनके मन की बात समझकर कृष्ण ने कहा कि मैं जानता हूँ कि तुम लोगों ने मुझे पति रूप में पाने के लिए कात्यायनी की पूजा की है। चूँकि गोपियाँ अपना मन उन्हें अर्पित कर चुकी थीं अतएव उनकी इच्छाएँ अब दुबारा भौतिक भोग से रंजित नहीं हो सकतीं जिस तरह भुने जौ से अंकुर नहीं फूट सकते। कृष्ण ने कहा कि अगली शरद ऋतु में तुम्हारी इच्छाएँ पूरी हो सकेंगी। तत्पश्चात् गोपियाँ पूरी तरह संतुष्ट होकर व्रज लौट गईं और कृष्ण तथा उनके ग्वालमित्र गौवें चराने दूर चले गये। कुछ समय बाद जब ग्वालबाल गर्मी की तपन से त्रस्त हो गये तो उन्होंने एक वृक्ष के नीचे शरण ली जो छाते के समान खड़ा था। तब श्रीकृष्ण ने कहा कि वृक्ष का जीवन सर्वोत्तम है क्योंकि वृक्ष पीड़ा सहते हुए भी धूप, वर्षा, बर्फ इत्यादि से दूसरों की रक्षा करता है। वह अपनी पत्तियों, फूलों, फलों, छाया, जड़ों, छाल, काठ, सुगन्धि, रस, राख, लुगदी, अंकुरों इत्यादि से हरएक की इच्छापूर्ति करता है। ऐसा जीवन आदर्श होता है। कृष्ण ने कहा कि वास्तव में जीवन की पूर्णता इसी में है कि अपने प्राण, सम्पत्ति, बुद्धि तथा वाणी से सबों के कल्याण हेतु कर्म किया जाय। जब कृष्ण इस तरह वृक्ष की महिमा का वर्णन कर चुके तो उनकी पूरी टोली यमुना के तट पर गई जहाँ ग्वालबालों ने स्वयं मधुर जल पिया और अपनी गौवों को भी पिलाया। |