श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 24: गोवर्धन-पूजा  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस अध्याय में कृष्ण द्वारा इन्द्र के निमित्त किये जाने वाले यज्ञ को रोक कर उसके बदले गोवर्धन-पूजा के यज्ञ का शुभारम्भ कराकर इन्द्र के गर्व को चूर करने का वर्णन...
 
श्लोक 1:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : उस स्थान पर ही अपने भाई बलदेव के साथ रहते हुए कृष्ण ने ग्वालों को इन्द्र-यज्ञ की जोर-शोर से तैयारी करते देखा।
 
श्लोक 2:  सर्वज्ञ परमात्मा होने से भगवान् कृष्ण पहले से ही सारी स्थिति जानते थे फिर भी विनीत भाव से उन्होंने अपने पिता नन्द महाराज इत्यादि गुरुजनों से पूछा।
 
श्लोक 3:  [भगवान् कृष्ण ने कहा]: हे पिताश्री, आप कृपा करके मुझे बतलायें कि आप इतना सारा महत् प्रयास किसलिए कर रहे हैं? आप क्या करना चाह रहे हैं? यदि यह कर्मकाण्डी यज्ञ है, तो यह किसकी तुष्टि हेतु किया जा रहा है और यह किन साधनों से सम्पन्न किया जायेगा?
 
श्लोक 4:  हे पिताश्री, कृपा करके इसके विषय में मुझे बतलायें। मुझे जानने की बड़ी इच्छा है और मैं श्रद्धापूर्वक सुनने को तैयार हूँ। जो अन्यों को अपने तुल्य मानते हैं, जिनमें अपनी तथा पराये का भेदभाव नहीं है और जो यह नहीं विचार करते कि कौन मित्र है, कौन शत्रु है और कौन उदासीन है ऐसे सन्त पुरुषों को कुछ भी छिपाकर नहीं रखना चाहिए।
 
श्लोक 5:  जो उदासीन (निरपेक्ष) होता है उससे शत्रु की तरह बचना चाहिए, किन्तु मित्र को अपने ही समान समझना चाहिए।
 
श्लोक 6:  जब इस जगत में लोग कर्म करते हैं, तो कभी तो वे समझते हैं कि वे क्या कर रहे हैं और कभी नहीं समझते। जो लोग यह जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं उन्हें अपने कार्य में सफलता प्राप्त होती है, जबकि अज्ञानी लोगों को सफलता नहीं मिलती।
 
श्लोक 7:  ऐसा होने से, आप मुझे स्पष्ट रूप से अपने इस अनुष्ठान विषयक उद्योग को बतला दें। क्या यह उत्सव शास्त्रसम्मत है या केवल समाज की एक साधारण रीति?
 
श्लोक 8:  नन्द महाराज ने उत्तर दिया: महान् ईश्वर इन्द्र वर्षा के नियंत्रक हैं। ये बादल उन्हीं के साक्षात् प्रतिनिधि हैं और वे ही वर्षा करते हैं जिससे समस्त प्राणियों को सुख और जीवनदान मिलता है।
 
श्लोक 9:  हे पुत्र, केवल हम ही नहीं अपितु अन्य लोग भी वर्षा करने वाले इन बादलों के स्वामी की पूजा करते हैं। हम उन्हें अन्न तथा अन्य पूजा-सामग्री भेंट करते हैं, जो वर्षा रूपी उन्हीं के वीर्य से उत्पन्न होती है।
 
श्लोक 10:  इन्द्र के लिए सम्पन्न यज्ञों से बचे जूठन को ग्रहण करके लोग अपना जीवन-पालन करते हैं तथा धर्म, अर्थ और काम रूपी तीन लक्ष्यों को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार भगवान् इन्द्र उद्यमी पुरुषों की सकाम सफलता के लिए उत्तरदायी अभिकर्ता हैं।
 
श्लोक 11:  यह धर्म स्वस्थ परम्परा पर आश्रित है। जो कोई काम, शत्रुता, भय या लोभ वश इसका बहिष्कार करता है उसे निश्चय ही सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सकेगा।
 
श्लोक 12:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब भगवान् केशव [कृष्ण] ने अपने पिता नन्द तथा व्रज के अन्य गुरुजनों के कथनों को सुना तो इन्द्र के प्रति क्रोध उत्पन्न करने के उद्देश्य से उन्होंने अपने पिता को इस प्रकार सम्बोधित किया।
 
श्लोक 13:  भगवान् कृष्ण ने कहा : कर्म से ही जीव जन्म लेता है और कर्म से ही उसका विनाश होता है। उसके सुख, दुख, भय तथा सुरक्षा की भावना का उदय कर्म के प्रभावों के रूप में होता है।
 
श्लोक 14:  यदि कोई परम नियन्ता हो भी, जो अन्यों को उनके कर्मों का फल प्रदान करता हो तो उसे भी कर्म करने वाले पर आश्रित रहना होगा। वस्तुत: जब तक सकाम कर्म सम्पन्न न हो ले तब तक सकाम कर्मफलों के प्रदाता के अस्तित्व का प्रश्न ही नहीं उठता।
 
श्लोक 15:  इस जगत में जीवों को अपने किसी विशेष पूर्व कर्म के परिणामों का अनुभव करने के लिए बाध्य किया जाता है। चूँकि भगवान् इन्द्र किसी तरह भी मनुष्यों के भाग्य को बदल नहीं सकते जो उनके स्वभाव से ही उत्पन्न होता है, तो फिर लोग उनकी पूजा क्यों करें?
 
श्लोक 16:  प्रत्येक व्यक्ति अपने ही बद्ध स्वभाव के अधीन है और उसे उस स्वभाव का ही पालन करना चाहिए। देवताओं, असुरों तथा मनुष्यों से युक्त यह सम्पूर्ण जगत जीवों के बद्ध स्वभाव पर आश्रित है।
 
श्लोक 17:  चूँकि कर्म के ही फलस्वरूप बद्धजीव उच्च तथा निम्न श्रेणी के विविध शरीरों को स्वीकार करता है और फिर त्याग देता है अतएव यह कर्म उसका शत्रु, मित्र तथा निरपेक्ष साक्षी है, उसका गुरु तथा ईश्वर है।
 
श्लोक 18:  अतएव मनुष्य को चाहिए कि वह कर्म की ही ठीक से पूजा करे। मनुष्य को अपने स्वभाव के अनुरूप स्थिति में बने रहना चाहिए और अपने ही कर्तव्य का निर्वाह करना चाहिए। निस्सन्देह जिससे हम अच्छी तरह रह सकते हैं वही वास्तव में हमारा पूज्य अर्चाविग्रह है।
 
श्लोक 19:  जो वस्तु वास्तव में हमारे जीवन का निर्वाह करती है यदि हम उसे छोडक़र अन्य वस्तु की शरण ग्रहण करते हैं, तो भला हमें असली लाभ कैसे प्राप्त हो सकता है? हम उस कृतघ्न स्त्री की भाँति होंगे जो जारपति के साथ प्रेमालाप करके कभी भी असली लाभ नहीं उठा पाती।
 
श्लोक 20:  ब्राह्मण वेदों का अध्ययन और अध्यापन करके, शासक वर्ग का सदस्य पृथ्वी की रक्षा करके, वैश्य व्यापार करके तथा शूद्र अपने से ऊँची श्रेणी के द्विजों की सेवा करके अपना जीवन-निर्वाह करता है।
 
श्लोक 21:  वैश्य के वृत्तिपरक कार्य चार प्रकार के माने गये हैं—कृषि, व्यापार, गोरक्षा तथा धन का लेन-देन। हम इनमें से केवल गोरक्षा में ही सदैव लगे रहे हैं।
 
श्लोक 22:  सृजन, पालन तथा संहार का कारण प्रकृति के तीन गुण—सतो, रजो तथा तमोगुण—हैं। विशिष्टत: रजोगुण इस ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करता है और संभोग के द्वारा यह विविधता से पूर्ण बनता है।
 
श्लोक 23:  रजोगुण द्वारा प्रेरित बादल सर्वत्र अपने जल की वर्षा करते हैं और इस वर्षा से ही सारे प्राणियों की जीविका चलती है। इस व्यवस्था से भला इन्द्र को क्या लेना-देना?
 
श्लोक 24:  हे पिताश्री, हमारे घर न तो नगरों में हैं, न कस्बों या गाँवों में हैं। वनवासी होने से हम सदैव जंगल में तथा पर्वतों पर रहते हैं।
 
श्लोक 25:  अत: गौवों, ब्राह्मणों तथा गोवर्धन पर्वत के आनन्द हेतु यज्ञ का शुभारम्भ हो। इन्द्र के पूजन के लिए जितनी सामग्री एकत्र की गई है उससे यह यज्ञ सम्पन्न किया जाय।
 
श्लोक 26:  खीर से लेकर तरकारी के शोरवे तक के विविध पकवान तैयार किये जायँ। अनेक प्रकार के बढिय़ा पापड़ तल लिए जायँ या सेंक लिए जायें तथा दूध के जितने भी पदार्थ बन सकें उन्हें इस यज्ञ के लिए एकत्र कर लिया जाय।
 
श्लोक 27:  वैदिक मंत्रों में पटु-ब्राह्मणों को चाहिए कि यज्ञ की अग्नियों का ठीक से आवाहन करें। तत्पश्चात् तुम लोग पुरोहितों को उत्तम भोजन कराओ और उन्हें गौवें तथा अन्य भेंटें दान में दो।
 
श्लोक 28:  कुत्तों तथा चाण्डालों जैसे पतितात्माओं समेत हर एक को उपयुक्त भोजन देने के बाद तुम सबों को चाहिए कि गौवों को घास दो और तब गोवर्धन पर्वत को अपनी सादर भेंटें चढ़ाओ।
 
श्लोक 29:  भरपेट भोजन करने के बाद तुममें से हरएक को वस्त्र तथा आभूषण से खूब सजना चाहिए, अपने शरीर में चन्दनलेप करना चाहिए और तत्पश्चात् गौवों, ब्राह्मणों, यज्ञ की अग्नियों तथा गोवर्धन पर्वत की प्रदक्षिणा करनी चाहिए।
 
श्लोक 30:  हे पिताश्री, यह मेरा विचार है और यदि आपको अच्छा लगे तो आप इसे कीजिये। ऐसा यज्ञ गौवों, ब्राह्मणों तथा गोवर्धन पर्वत को एवं मुझको भी अत्यन्त प्रिय होगा।
 
श्लोक 31:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : शक्तिमान काल स्वरूप भगवान् कृष्ण इन्द्र के मिथ्या गर्व को नष्ट करना चाहते थे। जब नन्द तथा वृन्दावन के अन्य वृद्धजनों ने श्रीकृष्ण का वचन सुना तो उन्होंने इसे उचित मान लिया।
 
श्लोक 32-33:  तत्पश्चात् ग्वाल समुदाय ने मधुसूदन द्वारा प्रस्तावित सब कुछ पूरा किया। उन्होंने शुभ वैदिक मंत्रों का वाचन करने के लिए ब्राह्मणों की व्यवस्था की और इन्द्र-यज्ञ के निमित्त संग्रहीत सारी सामग्री को उपयोग में लाते हुए गोवर्धन पर्वत तथा ब्राह्मणों को सादर भेंटें दीं। उन्होंने गौवों को भी घास दिया। तत्पश्चात् गौवों, साँड़ों तथा बछड़ों को आगे करके गोवर्धन पर्वत की प्रदक्षिणा की।
 
श्लोक 34:  बैलों द्वारा खींचे जा रहे छकड़ों में चढक़र सुन्दर आभूषणों से अलंकृत गोपियाँ भी साथ हो लीं और कृष्ण की महिमा का गान करने लगीं और उनके गीत ब्राह्मणों के आशीष के साथ समामेलित हो गये।
 
श्लोक 35:  तत्पश्चात् कृष्ण ने गोपों में श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए अभूतपूर्व विराट रूप धारण कर लिया और यह घोषणा करते हुए कि “मैं गोवर्धन पर्वत हूँ” प्रचुर भेंटें खा लीं।
 
श्लोक 36:  कृष्ण ने व्रजवासियों समेत गोवर्धन पर्वत के इस स्वरूप को नमन किया और इस तरह वास्तव में अपने को ही नमस्कार किया। तत्पश्चात् उन्होंने कहा, “जरा देखो तो, यह पर्वत किस तरह पुरुष रूप में प्रकट हुआ है और इसने हम पर कृपा की है।”
 
श्लोक 37:  यह गोवर्धन पर्वत इच्छानुसार रूप धारण करके अपनी उपेक्षा करने वाले वन के किसी भी निवासी को मार डालेगा। अत: अपनी तथा गौवों की सुरक्षा के लिए हम उसको नमस्कार करें।
 
श्लोक 38:  इस प्रकार भगवान् वासुदेव द्वारा समुचित ढंग से गोवर्धन-यज्ञ सम्पन्न करने के लिए प्रेरित किये गये गोपजन गौवें तथा ब्राह्मण कृष्ण के साथ अपने गाँव व्रज लौट आये।
 
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