श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 25: कृष्ण द्वारा गोवर्धन-धारण  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  10.25.4 
यथाद‍ृढै: कर्ममयै: क्रतुभिर्नामनौनिभै: ।
विद्यामान्वीक्षिकीं हित्वा तितीर्षन्ति भवार्णवम् ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
यथा—जिस तरह; अदृढै:—अपर्याप्त; कर्म-मयै:—सकाम कर्म पर आधारित; क्रतुभि:—यज्ञों के द्वारा; नाम—नाममात्र को; नौ-निभै:—नावों की तरह कार्य करने वाले; विद्याम्—ज्ञान को; आन्वीक्षिकीम्—आध्यात्मिक; हित्वा—त्यागकर; तितीर्षन्ति—पार करने का प्रयास करते हैं; भव-अर्णवम्-संसार-सागर को ।.
 
अनुवाद
 
 उनके द्वारा कृष्ण की शरण ग्रहण करना वैसा ही है जैसा कि लोगों द्वारा दिव्य आत्म-ज्ञान को त्यागकर सकाम कर्ममय यज्ञों की मिथ्या नावों में चढक़र इस महान् भवसागर को पार करने का मूर्खतापूर्ण प्रयास होता है।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥