श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 26: अद्भुत कृष्ण  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  10.26.2 
बालकस्य यदेतानि कर्माण्यत्यद्भ‍ुतानि वै ।
कथमर्हत्यसौ जन्म ग्राम्येष्वात्मजुगुप्सितम् ॥ २ ॥
 
शब्दार्थ
बालकस्य—बालक के; यत्—क्योंकि; एतानि—इन; कर्माणि—कर्मों को; अति-अद्भुतानि—अत्यन्त अद्भुत; वै—निश्चय ही; कथम्—कैसे; अर्हति—चाहिए; असौ—वह; जन्म—जन्म; ग्राम्येषु—संसारी लोगों के बीच; आत्म—अपने लिए; जुगुप्सितम्—घृणित ।.
 
अनुवाद
 
 [ग्वालों ने कहा]: जब यह बालक ऐसे अद्भुत कार्य करता है, तो फिर किस तरह हम जैसे संसारी व्यक्तियों के बीच उसने जन्म लिया? ऐसा जन्म तो उसके लिए घृणित लगेगा।
 
तात्पर्य
 सामान्य जीव अप्रिय परिस्थितियों से अपने को नहीं बचा सकता किन्तु परम नियन्ता हमेशा अपनी इच्छा के अनुसार पूर्ण व्यवस्था कर सकता है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥