|
|
|
श्लोक 10.27.17  |
गम्यतां शक्र भद्रं व: क्रियतां मेऽनुशासनम् ।
स्थीयतां स्वाधिकारेषु युक्तैर्व: स्तम्भवर्जितै: ॥ १७ ॥ |
|
शब्दार्थ |
गम्यताम्—जा सकते हो; शक्र—हे इन्द्र; भद्रम्—कल्याण; व:—तुम्हारा; क्रियताम्—तुम्हें पालन करना चाहिए; मे—मेरी; अनुशासनम्—आज्ञा का; स्थीयताम्—तुम रहे आओ; स्व—अपने; अधिकारेषु—उत्तरदायित्वों में; युक्तै:—लगे रहकर; व:— तुम; स्तम्भ—मिथ्या अहंकार; वर्जितै:—से रहित ।. |
|
अनुवाद |
|
हे इन्द्र, अब तुम जा सकते हो। मेरी आज्ञा का पालन करो और स्वर्ग के राज-पद पर बने रहो। किन्तु मिथ्या अभिमान से रहित होकर गम्भीर बने रहना। |
|
तात्पर्य |
यहाँ पर भगवान् कृष्ण इन्द्र को बहुवचन में (व:) सम्बोधित करते हैं क्योंकि यह गम्भीर आदेश समस्त देवताओं के लिए शिक्षा के रूप में था। |
|
|
शेयर करें
 |