भागवत के महान् टीकाकार श्रील श्रीधर स्वामी ने इस गूढ़ श्लोक की विवेचना बड़ी ही विद्वत्ता के साथ की है। संस्कृत शब्द धाम के कई अर्थ होते हैं—(अ) रहने का स्थान, घर, निवास इत्यादि (आ) कोई प्रिय वस्तु या व्यक्ति, हर्ष, या आनन्द (इ) स्वरूप (ई) शक्ति, बल, यश, वैभव, प्रकाश। जहाँ तक (अ) के अन्तर्गत दिये गये अर्थों का सम्बन्ध है—वेदान्त सूत्र का कथन है कि परम सत्य समस्त जगत का उद्गम एवं आश्रय है और भागवत के पहले श्लोक में कृष्ण को परम सत्य कहा गया है। यद्यपि भगवान् कृष्ण अपने धाम या आवास में, जिसे कृष्ण-लोक कहते हैं, निवास करते हैं किन्तु वे स्वयं समस्त जगत के धाम हैं जैसाकि अर्जुन ने भगवद्गीता में पुष्टि की है जहाँ वे कृष्ण को परंधाम कहकर सम्बोधित करते हैं।
कृष्ण नाम ही सर्व-आकर्षक व्यक्ति का द्योतक है, अत: भगवान् कृष्ण जो समस्त सौन्दर्य तथा आनन्द के स्रोत हैं अवश्य ही “प्रिय वस्तु, व्यक्ति, हर्ष, आनन्द” हैं। और: ये सारे शब्द अन्तत: कृष्ण के ही सूचक हैं।
धाम स्वरूप का भी द्योतक है और जब इन्द्र ने यह स्तुति की तो वह अपने समक्ष कृष्ण के स्वरूप को प्रत्यक्ष देख रहा था।
जैसाकि वैदिक वाङ्मय में स्पष्ट तौर पर बतलाया गया है भगवान् कृष्ण की शक्ति, बल, यश, वैभव आदि उनके दिव्य शरीर में निहित होते हैं अतएव वे भगवान् के अनन्त यश की पुष्टि करते हैं।
श्रील श्रीधर स्वामी ने धाम के इन सारे अर्थों को बड़ी सुन्दरता से संक्षिप्त तौर पर संस्कृत शब्द स्वरूप का पर्याय माना है। स्वरूप का अर्थ है “अपना रूप” या “अपनी निजी दशा, या प्रकृति।” चूँकि शुद्ध आत्मा होने के कारण भगवान् कृष्ण अपने शरीर से अभिन्न हैं अतएव भगवान् तथा उनके दृश्य रूप में कोई भी अन्तर नहीं है। इसके विपरीत हम बद्धजीव इस भौतिक जगत में अपने शरीर से बिल्कुल भिन्न होते हैं चाहे नर का शरीर हो या नारी का, चाहे वह काला हो या गोरा। हम सभी अपने नाशवान घृणित शरीरों से पृथ्क नित्य आत्माएँ हैं।
जब स्वरूप शब्द हम पर लागू किया जाता है, तो यह विशेष रूप से हमारे आध्यात्मिक स्वरूप का द्योतन करता है क्योंकि हमारा “अपना रूप” वस्तुत: हमारी “अपनी दशा या प्रकृति” होता है। अत: वह मुक्त अवस्था जिसमें मनुष्य का बाह्यरूप उसकी गहनतम आध्यात्मिक प्रकृति होता है स्वरूप कहलाता है। किन्तु मूलत: यह शब्द भगवान् श्रीकृष्ण का द्योतक है। यह इस श्लोक के तव धाम से स्पष्ट है, जिसकी व्याख्या श्रीधर स्वामी ने की है।
श्रीधर स्वामी ने यहाँ पर शान्तम् शब्द का अर्थ “सदैव एक ही रूप में” बतलाया है। शान्तम् का अर्थ “अविचलित, काम से मुक्त या शुद्ध” भी हो सकता है। वैदिक दर्शन के अनुसार इस जगत के सारे परिवर्तन रजो तथा तमोगुण से उत्पन्न होते हैं। रजोगुण सृजनात्मक है और तमोगुण विध्वंसक है, जबकि सत्त्व या सतोगुण शान्त तथा टिकाऊ है। यह श्लोक कई प्रकार से इस पर बल देता है कि भगवान् कृष्ण प्राकृतिक गुणों से मुक्त हैं। विशुद्ध-सत्त्वं, शान्तम्, ध्वस्त-रजस्तमस्कम् तथा गुणसम्प्रवाहो न विद्यते ते—ये सारे शब्द इसी को इंगित करने वाले हैं। कृष्ण के विपरीत हम सभी लोग प्रकृति के गुणों में उलझे होने के कारण देहान्तरण करते रहते हैं, भौतिक स्वरूपों के विविध रूपान्तर (विकार) प्रकृति के गुणों द्वारा प्रेरित होते हैं और ये गुण स्वयं काल के प्रभाव से गति प्राप्त करते हैं। अतएव जो व्यक्ति प्रकृति के गुणों से मुक्त है, वह अपरिवर्तित रहता है और आनन्दमय दिव्य जगत में सदैव तुष्ट रहता है। इस तरह शान्तम् शब्द बतलाता है कि भगवान् किसी भी परिवर्तन से अविचल रहते हैं क्योंकि वे प्रकृति के भौतिक गुणों से मुक्त हैं।
इस श्लोक के अनुसार तीनों भौतिक गुणों अर्थात् रजोगुण, तमोगुण एवं सांसारिक शुद्धता का प्रबल प्रवाह अग्रहण पर आधारित होता है, जिसका अनुवाद श्रील श्रीधर स्वामी ने “अज्ञान” किया है। चूँकि संस्कृत धातु, ग्रह् का अर्थ “लेना, स्वीकार करना या जानना” है।
अत: ग्रहण का अर्थ हुआ “किसी विचार या तथ्य को पकडऩा।” अत: अग्रहण का अर्थ हुआ अपनी आध्यात्मिक स्थिति को न समझ पाना और न समझ पाने के कारण ही वह संसार के प्रबल प्रवाह में गिर जाता है।
अग्रहण शब्द का एक अन्य अर्थ भी निकलता है जब इसे अग्र-हण में तोड़ा जाता है। अग्र का अर्थ है “प्रथम, सर्वोच्च, सर्वश्रेष्ठ” और हन का अर्थ है “मारना।” हमारे जीवन का सर्वश्रेष्ठ अंग शुद्ध आत्मा है, जो नित्य है, जबकि शरीर तथा मन क्षणिक हैं। अतएव जो व्यक्ति कृष्ण-भक्ति की तुलना में संसार का वरण करता है, वह अपने सर्वश्रेष्ठ अंग आत्मा का हनन करता है क्योंकि आत्मा अपने शुद्ध रूप में असीम कृष्ण-भक्ति का भोग करता है।
श्रील श्रीधर स्वामी ने तपोमयम् का अर्थ “ज्ञान से पूर्ण” दिया है। तपस् शब्द का सामान्य अर्थ तपस्या है और यह तप् धातु से निकला है, जिसका कुल मिलाकर अर्थ होता है सूर्य के विविध कार्य। तप् का अर्थ है “जलना, चमकना, गर्म करना, इत्यादि।” भगवान् शाश्वत रूप से पूर्ण हैं अतएव यहाँ पर तपोमय यह नहीं बतलाता कि भगवान् का दिव्य शरीर तपस्या के लिए है क्योंकि तप तो बद्धजीवों द्वारा अपने आपको शुद्ध बनाने या कोई विशेष शक्ति प्राप्त करने के लिए किया जाता है। सर्वशक्तिमान, पूर्ण जीव न तो अपने को शुद्ध बनाता है न ही शक्ति प्राप्त करता है—वह तो नित्य शुद्ध एवं सर्वशक्तिमान होता है। इसलिए श्रीधर स्वामी ने बड़ी ही बुद्धिमानी से तपस् का अर्थ “सूर्य का प्रकाशित करने का कर्म” लगाया है और इस तरह यह सूचित करता है कि भगवान् का आत्मतेजोमय शरीर सर्वज्ञ है। प्रकाश ज्ञान का सामान्य प्रतीक है। भगवान् का आध्यात्मिक तेज मोमबत्ती या बिजली के बल्ब के समान शारीरिक प्रकाश ही नहीं देता। इससे भी बड़ी बात है कि भगवान् का शरीर हमारी चेतना को पूर्ण ज्ञान से प्रकाशित करता है क्योंकि भगवान् का तेज स्वयं पूर्ण ज्ञान है।
हम श्रील श्रीधर स्वामी के चरणों को सादर नमस्कार करते हैं और इस श्लोक की उनकी प्रकाशमयी टीका के लिए उन्हें धन्यवाद देते हैं।