श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 28: कृष्ण द्वारा वरुणलोक से नन्द महाराज की रक्षा  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  10.28.13 
जनो वै लोक एतस्मिन्नविद्याकामकर्मभि: ।
उच्चावचासु गतिषु न वेद स्वां गतिं भ्रमन् ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
जन:—लोक; वै—निश्चय ही; लोके—जगत में; एतस्मिन्—इस; अविद्या—ज्ञानविहीन; काम—इच्छाओं के कारण; कर्मभि:—कार्यों से; उच्च—श्रेष्ठ; अवचासु—तथा निम्न; गतिषु—लक्ष्यों के बीच; न वेद—नहीं पहचानता; स्वाम्—निजी; गतिम्—लक्ष्य; भ्रमन्—घूमते हुए ।.
 
अनुवाद
 
 [भगवान् कृष्ण ने सोचा] निश्चय ही इस जगत में लोग ऊँचे तथा नीचे गन्तव्यों के बीच भटक रहे हैं, जिन्हें वे अपनी इच्छाओं के अनुसार तथा पूरी जानकारी के बिना किये गये कर्मों के माध्यम से प्राप्त करते हैं। इस तरह लोग अपने असली गन्तव्य को नहीं जान पाते।
 
तात्पर्य
 श्रील जीव गोस्वामी ने विस्तार से बतलाया है कि किस तरह यह श्लोक भगवान् के धाम श्री वृन्दावन के नित्यमुक्त वासियों पर लागू होता है। श्रीमद्भागवत का एक मूल दार्शनिक सिद्धान्त दो प्रकार की माया—योगमाया तथा महामाया अर्थात् जीवन की आध्यात्मिक और भौतिक अवस्थाओं—के बीच का अन्तर है। यद्यपि कृष्ण सर्वशक्तिमान सर्वज्ञ परम पुरुष हैं किन्तु वैकुण्ठ लोक के उनके पार्षद उनसे इतना अधिक प्रेम करते हैं कि वे उन्हें अपना प्रिय पुत्र, मित्र, प्रेमी इत्यादि मानते हैं। अतएव उनका अतीव हर्षयुक्त प्रेम कोरे सम्मान की सीमाओं को लाँघ सकता है और वे यह भूल जाते हैं कि कृष्ण समस्त ब्रह्माण्डों के परमेश्वर हैं। इस तरह उनका शुद्ध घनिष्ट प्रेम असीम विस्तार कर लेता है। कृष्ण को असहाय बालक, सुन्दर सखा या साथी मानने के कार्यों को कृष्ण के ईश्वर-पद के प्रति अविद्या की अभिव्यक्ति माना जा सकता है किन्तु वृन्दावनवासी कृष्ण के राजसी रूप की उपेक्षा करके अपना ध्यान उनके असीम सौन्दर्य पर केन्द्रित करते हैं क्योंकि वही उनका प्राणाधार है।

वस्तुत: भगवान् कृष्ण को परम नियन्ता तथा ईश्वर कहना एक प्रकार का राजनैतिक विश्लेषण है क्योंकि यह शक्ति और नियंत्रण जो तभी महत्त्वपूर्ण हो सकता है जब जीव अपने से उच्च जीव के प्रति प्रेम में पूर्णतया समर्पित नहीं होता। दूसरे शब्दों में, नियंत्रण तो स्पष्ट दिखाई देने लगता है या अनुभव होने लगता है जब उस नियंत्रण का विरोध होता है उदाहरणार्थ, एक पवित्र एवं कानून का पालन करने वाला नागरिक एक पुलिसवाले को मित्र तथा हितैषी समझता है, जबकि अपराधी उसे दण्ड के भयावह प्रतीक के रूप में देखता है। जो लोग सरकारी नीतियों के हामी हैं, वे यह नहीं अनुभव करते कि सरकार उनपर नियंत्रण रख रही है अपितु यह कि वह उनकी सहायक है।

इस तरह भगवान् कृष्ण उन लोगों के द्वारा जो उनके सौन्दर्य तथा लीलाओं से पूर्णतया मुग्ध नहीं हैं, एक “नियन्ता” तथा “परमेश्वर” के रूप में देखे जाते हैं। जो लोग भगवान् कृष्ण से पूरी तरह प्रेम करते हैं, वे उनके उदात्त आकर्षक अंगों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। वे उनसे अपने इस प्रकार के सम्बन्ध के कारण उनकी नियामक शक्ति पर उतना ध्यान नहीं देते।

व्रजवासियों ने ईशभावनामृत की निम्न अवस्थाओं को लाँघ दिया है किन्तु उन तक पहुँच नहीं पाए हैं इसका प्रमाण यह है कि भगवान् की सारी लीलाओं के दौरान वे प्राय: “स्मरण” करते हैं कि कृष्ण ईश्वर हैं। सामान्यतया उन्हें इस स्मरण पर आश्चर्य होता है क्योंकि वे कृष्ण को अपना मित्र, प्रेमी इत्यादि के रूप में देखने में लीन रहते आए हैं।

काम शब्द प्राचीन काल से ही भौतिक इच्छा या किसी ऐसी प्रबल आध्यात्मिक इच्छा को द्योतित करने के लिए प्रयुक्त किया जाता रहा है कि वह प्रबल भौतिक इच्छा का पर्यायवाचक बन जाती है। फिर भी मौलिक अन्तर तो बना ही रहता है—भौतिक इच्छा स्वार्थमय तथा आत्म-तृप्तिप्रद होती है, जबकि आध्यात्मिक इच्छा स्वार्थ से रहित तथा पूर्णतया अन्य के, भगवान् के, आनन्द के लिए होती है। इस तरह वृन्दावनवासी अपने नैतिक कृत्य एकमात्र अपने प्रिय कृष्ण की प्रसन्नता के लिए करते थे।

यह स्मरण रखना चाहिए कि इस धरा पर कृष्ण के अवतरण का सारा उद्देश्य जीवों को भगवद्धाम जाने के लिए आकृष्ट करना है। इसके लिए दो बातें आवश्यक होती हैं—उनकी लीलाएँ आध्यात्मिक पूर्णता के सौन्दर्य को प्रदर्शित करती हैं और वे किसी न किसी तरह प्रासंगिक जान पडऩे के कारण इस जगत के बद्धजीवों के लिए रोचक होती हैं। भागवत में प्राय: कहा गया है कि भगवान् कृष्ण एक तरुण नट की तरह खेल करते हैं और निस्सन्देह अपने नित्य भक्तों को नाटक में लगाये रखते हैं। इस तरह कृष्ण मन ही मन सोचते हैं कि इस जगत के लोग सचमुच ही अपने चरम गन्तव्य को नहीं जानते। इसी तरह वे अपने नित्य मुक्त पार्षदों के बारे में भी सोचते हैं, जो इस जगत में ग्वालों की तरह क्रीड़ा करते हैं।

कृष्ण के मुक्त पार्षदों के संदर्भ में लगाए गए इस श्लोक के श्लिष्ट अर्थ के अतिरिक्त, कृष्ण सामान्य लोगों के विषय में पूर्णतया सीधी और तीखी आलोचना करते हैं। जब उन बद्धजीवों पर इसे लागू किया जाता है, जो इस ब्रह्माण्ड-भर में वास्तव में विचरण करते रहते हैं, तो उनका यह कथन कि लोग अज्ञान तथा कामवासनावश कार्य करते हैं किसी अधिक गम्भीर आध्यात्मिक अर्थ से कम नहीं होता। मनुष्य सामान्यतया अनजान होते हैं और वे अपने चरम गन्तव्य पर गम्भीरता से विचार नहीं करते। श्रीकृष्ण कुछ ही सरल शब्दों में कई जटिल बातें कहने में समर्थ हैं। हम कितने भाग्यशाली हैं कि ईश्वर ऊर्जा के शुष्क क्षेत्र नहीं हैं—इन्द्रियातीत, तेज पुंज या शून्य—प्रत्युत वे साकार गुणों से पूर्ण हैं और हम जो कुछ कर सकते हैं, वे उससे अधिक अच्छे ढंग से कर सकते हैं—यह उनके बोलने की प्रभावशाली शैली से प्रमाणित है।

 
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