श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 28: कृष्ण द्वारा वरुणलोक से नन्द महाराज की रक्षा  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  10.28.2 
तं गृहीत्वानयद् भृत्यो वरुणस्यासुरोऽन्तिकम् ।
अवज्ञायासुरीं वेलां प्रविष्टमुदकं निशि ॥ २ ॥
 
शब्दार्थ
तम्—उसको; गृहीत्वा—पकडक़र; अनयत्—ले आया; भृत्य:—नौकर; वरुणस्य—समुद्र के स्वामी, वरुण का; असुर:— असुर के; अन्तिकम्—समक्ष; अवज्ञाय—अवहेलना करके; आसुरीम्—अशुभ; वेलाम्—समय; प्रविष्टम्—प्रवेश करके; उदकम्—जल में; निशि—रात्रि के समय ।.
 
अनुवाद
 
 चूँकि नन्द महाराज ने इस बात की अवहेलना करके कि यह अशुभ समय था, रात्रि के अंधकार में जल में प्रवेश किया था अत: वरुण का आसुरी सेवक उन्हें पकड़ कर अपने स्वामी के पास ले आया।
 
तात्पर्य
 नन्द महाराज अपना व्रत द्वादशी को तोडऩे के इच्छुक थे और उसमें अब केवल कुछ ही क्षण शेष थे। अत: वे प्रभात होने के पूर्व अशुभ समय में स्नान करने के लिए जल में प्रविष्ट हुए। वरुण के जिस सेवक ने नन्द महाराज को पकड़ा था उसे असुर कहा गया है, जिसके कारण स्पष्ट हैं। पहले तो वह सेवक इस बात से अनजान था कि नन्द महाराज परम सत्य के लीला के रूप में पिता हैं। दूसरे नन्द महाराज शास्त्रों के आदेशों का पालन करना चाह रहे थे अतएव वरुण के सेवक को इस बात के लिए उन्हें नहीं पकडऩा चाहिए था कि वे अशुभ वेला में यमुना-स्नान कर रहे थे। इसी अध्याय में आगे चलकर वरुण कहते हैं—अजानता मामकेन मूढेन—मेरे अज्ञानी नौकर ने यह किया क्योंकि वह मूर्ख था। यह मूर्ख नौकर कृष्ण या नन्द महाराज या भगवद्भक्ति के विषय में कुछ नहीं जानता था।

सारांश यह कि भगवान् कृष्ण वरुण को अपना दर्शन देना चाहते थे और साथ ही अन्य उपदेशात्मक कार्य सम्पन्न करना चाहते थे। इस अद्भुत लीला का उद्घाटन आगे होगा।

 
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