अयम् अर्थात् “यह जो यहाँ है” स्पष्टत: सूचित करता है कि जब वरुण बोल रहा था, तो कृष्ण के पिता नन्द महाराज वहाँ उपस्थित थे। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती लिखते हैं कि वरुण ने वास्तव में श्रीनन्द को रत्नजटित सिंहासन पर आसीन कर रखा था और स्वयं उनकी सादर पूजा की थी। एक तरह से नन्द महाराज का सूर्योदय के पूर्व जल में प्रवेश करना उचित था। श्रील जीव गोस्वामी ने इस अध्याय के प्रथम श्लोक की टीका में इसकी व्याख्या इस प्रकार की है : विशेषतया छोटी होने के कारण, एकादशी केवल १८ घंटे की थी अत: सूर्योदय के पूर्व ही द्वादशी के छ: घंटे बीत चुके थे जिनमें उपवास तोडऩा था। चूँकि सूर्योदय होने पर व्रत-भंग का सही समय बीत चुका होता इसलिए नन्द महाराज ने अन्यथा अशुभ समय में जल में प्रवेश करने का निश्चय किया।
वरुण का सेवक वैदिक अनुष्ठानों के पालन करने वालों के निमित्त इन विस्तृत बातों से अवश्य ही ज्ञात रहा होगा। इसके अतिरिक्त नन्द महाराज भगवान् के पिता जैसा आचरण कर रहे थे अतएव वे परम पवित्र व्यक्ति थे जिन्हें वरुण के मूर्ख सेवक जैसे संसारी नगण्य अधिकारी छू भी नहीं सकते थे।