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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 29: रासनृत्य के लिए कृष्ण तथा गोपियों का मिलन  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस अध्याय में यह बतलाया गया है कि भगवान् श्रीकृष्ण रासनृत्य का आनन्द लेने की इच्छा से किस तरह गोपियों से तर्क-वितर्क करते हैं। तत्पश्चात् रासनृत्य के शुभारम्भ...
 
श्लोक 1:  श्रीबादरायणि ने कहा : श्रीकृष्ण समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण भगवान् हैं फिर भी खिलते हुए चमेली के फूलों से महकती उन शरदकालीन रातों को देखकर उन्होंने अपने मन को प्रेम-व्यापार की ओर मोड़ा। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अपनी अन्तरंगा शक्ति का उपयोग किया।
 
श्लोक 2:  तब चन्द्रमा अपनी लाल रंग की सुखदायी किरणों से पश्चिमी क्षितिज को रंजित करते हुए उदय हुआ और इस तरह उसने उदय होते देखने वालों की पीड़ा दूर कर दी। यह चन्द्रमा उस प्रिय पति के समान था, जो दीर्घकालीन अनुपस्थिति के बाद घर लौटता है और अपनी प्रियतमा पत्नी के मुखमण्डल को लाल कुंकुम से सँवारता है।
 
श्लोक 3:  भगवान् कृष्ण ने नवलेपित सिंदूर के लाल तेज से चमकते पूर्ण चन्द्रमा के अविच्छिन्न मण्डल को देखा। ऐसा लग रहा था मानो लक्ष्मीजी का मुखमण्डल हो। उन्होंने चन्द्रमा की उपस्थिति से खिलने वाले कुमुदों को तथा उसकी किरणों से मन्द मन्द प्रकाशित जंगल को भी देखा। इस तरह भगवान् ने अपनी वंशी पर सुन्दर नेत्रों वाली गोपियों के मन को आकृष्ट करने वाली मधुर तान छेड़ दी।
 
श्लोक 4:  जब वृन्दावन की युवतियों ने कृष्ण की बाँसुरी का संगीत सुना जो प्रेम-भावनाओं को उत्तेजित करता है, तो उनके मन भगवान् द्वारा वशीभूत कर लिये गये। वे वहीं चली गईं जहाँ उनका प्रियतम बाट जोह रहा था। वे एक-दूसरे की अनदेखी करके इतनी तेजी से आगे बढ़ रही थीं कि उनके कान की बालियाँ आगे-पीछे हिल-डुल रही थीं।
 
श्लोक 5:  कुछ गोपियाँ दूध दुह रही थीं जब उन्होंने कृष्ण की बाँसुरी सुनी। उन्होंने दुहना बन्द कर दिया और वे कृष्ण से मिलने चली गईं। कुछ ने चूल्हे पर दूध को उबलते छोड़ दिया और कई ने चूल्हें में रोटियों को सिकते हुए छोड़ दिया।
 
श्लोक 6-7:  उनमें से कुछ वस्त्र पहन रही थीं, कुछ अपने बच्चों को दूध पिला रही थीं या अपने पतियों की सेवा में लगी थीं किन्तु सबों ने अपने-अपने कार्य छोड़ दिये और वे कृष्ण से मिलने चली गईं। कुछ गोपियाँ शाम का भोजन कर रही थीं, कुछ नहा-धोकर शरीर में अंगराग या अपनी आँखों में कज्जल लगा रही थीं। किन्तु सबों ने तुरन्त अपने अपने कार्य बन्द कर दिये और यद्यपि उनके वस्त्र तथा गहने अस्त-व्यस्त थे वे कृष्ण के पास दौड़ी गईं।
 
श्लोक 8:  उनके पतियों, पिताओं, भाइयों तथा अन्य सम्बन्धियों ने उन्हें रोकने का प्रयत्न किया किन्तु कृष्ण उनके हृदयों को पहले ही चुरा चुके थे। उनकी बाँसुरी की ध्वनि से मोहित होकर उन्होंने लौटने से इनकार कर दिया।
 
श्लोक 9:  किन्तु कुछ गोपियाँ अपने घरों से बाहर न निकल पाईं अत: वे अपनी आँखें बन्द किये शुद्ध प्रेम में कृष्ण का ध्यान करते हुए घर पर ही ठहरी रहीं।
 
श्लोक 10-11:  जो गोपियाँ कृष्ण का दर्शन करने नहीं जा सकीं, उनके लिए अपने प्रियतम से असह्य विछोह तीव्र वेदना उत्पन्न करने लगा, जिसने उनके सारे अशुभ कर्मों को भस्म कर डाला। उनका ध्यान करने से गोपियों को उनके आलिंगन की अनुभूति हुई और तब उन्हें जो आनन्द अनुभव हुआ उसने उनकी भौतिक धर्मनिष्ठा को समाप्त कर दिया। यद्यपि भगवान् कृष्ण परमात्मा हैं किन्तु इन युवतियों ने उन्हें अपना प्रेमी ही समझा और उसी घनिष्ठ रस में उनका संसर्ग प्राप्त किया। इस तरह उनके कर्म-बन्धन नष्ट हो गये और उन्होंने अपने स्थूल भौतिक शरीरों को त्याग दिया।
 
श्लोक 12:  श्रीपरीक्षित महाराज ने कहा : “हे मुनिवर, गोपियाँ कृष्ण को केवल अपना प्रेमी मानती थीं, परम पूर्ण सत्य के रूप में नहीं मानती थीं। तो फिर ये युवतियाँ जिनके मन प्रकृति के गुणों की लहरों में बह रहे थे, किस तरह से अपने आपको भौतिक आसक्ति से छुड़ा पाईं?”
 
श्लोक 13:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : यह विषय आपको पहले बताया जा चुका था। चूँकि कृष्ण से घृणा करने वाला शिशुपाल तक सिद्धि प्राप्त कर सका तो फिर भगवान् के प्रिय भक्तों के विषय में कहना ही क्या है?
 
श्लोक 14:  हे राजन्, भगवान् अव्यय तथा अप्रमेय हैं और भौतिक गुणों से अछूते हैं क्योंकि वे इन गुणों के नियन्ता हैं। इस जगत में साकार रूप में उनका आविर्भाव मानवता को सर्वोच्च लाभ दिलाने के निमित्त होता है।
 
श्लोक 15:  जो व्यक्ति अपने काम, क्रोध, भय, रक्षात्मक स्नेह, निर्विशेष एकत्व का भाव या मित्रता को सदैव भगवान् हरि में लगाते हैं, वे निश्चित रूप से उनके भावों में तल्लीन हो जाते हैं।
 
श्लोक 16:  आपको योगेश्वरों के अजन्मा, ईश्वर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण के विषय में इस तरह चकित नहीं होना चाहिए। अन्तत: भगवान् ही इस जगत का उद्धार करने वाले हैं।
 
श्लोक 17:  यह देखकर कि व्रज-बालाएँ आ चुकी हैं, वक्ताओं में श्रेष्ठ भगवान् कृष्ण ने उनके मन को मोहित करने वाले आकर्षक शब्दों से उनका स्वागत किया।
 
श्लोक 18:  भगवान् कृष्ण ने कहा : हे अति भाग्यवंती नारीगण, तुम्हारा स्वागत है। मैं तुम लोगों की प्रसन्नता के लिए क्या कर सकता हूँ? व्रज में सब कुशल-मंगल तो है? तुम लोग अपने यहाँ आने का कारण मुझे बतलाओ।
 
श्लोक 19:  यह रात अत्यन्त भयावनी है और भयावने प्राणी इधर उधर फिर कर रहे हैं। हे पतली कमर वाली स्त्रियो, व्रज लौट जाओ। स्त्रियों के लिए यह उपयुक्त स्थान नहीं है।
 
श्लोक 20:  तुम्हारी माताएँ, पिता, पुत्र, भाई तथा पति तुम्हें घर पर न पाकर निश्चित रूप से तुम्हें ढूँढ़ रहे होंगे। अपने परिवार वालों के लिए चिन्ता मत उत्पन्न करो।
 
श्लोक 21-22:  अब तुम लोगों ने फूलों से भरे तथा पूर्ण चन्द्रमा की चाँदनी से सुशोभित इस वृन्दावन जंगल को देख लिया। तुम लोगों ने यमुना से आने वाली मन्द मन्द वायु से हिलते पत्तों वाले वृक्षों का सौन्दर्य देख लिया। अत: अब अपने गाँव वापस चली जाओ। देर मत करो। हे सती स्त्रियो, जाकर अपने पतियों की सेवा करो और क्रन्दन करते बच्चों तथा बछड़ों को दूध दो।
 
श्लोक 23:  अथवा तुम लोग कदाचित् मेरे प्रति अगाध प्रेम के कारण यहाँ आई हो क्योंकि इस प्रेम ने तुम्हारे हृदयों को जीत लिया है। यह सचमुच ही सराहनीय है क्योंकि सारे जीव मुझसे सहज भाव से स्नेह करते हैं।
 
श्लोक 24:  स्त्री का परम धर्म है कि वह निष्ठापूर्वक अपने पति की सेवा करे, अपने पति के परिवार के प्रति अच्छा व्यवहार करे तथा अपने बच्चों की ठीक देखरेख करे।
 
श्लोक 25:  जो स्त्रियाँ अगले जीवन में उत्तम लोक प्राप्त करना चाहती हैं उन्हें चाहिए कि उस पति का कभी परित्याग न करें जो अपने धार्मिक स्तर से नीचे न गिरा हो चाहे वह दुश्चरित्र, अभागा, वृद्ध, अज्ञानी, बीमार या निर्धन क्यों न हो।
 
श्लोक 26:  कुलीन स्त्री के लिए क्षुद्र व्यभिचार सदा ही निन्दनीय हैं, इनसे स्वर्ग जाने में बाधा पहुँचती है, उसकी ख्याति नष्ट होती है और ये उसके लिए कठिनाई तथा भय उत्पन्न करनेवाले होते हैं।
 
श्लोक 27:  मेरे विषय में सुनने, मेरे अर्चाविग्रह रूप का दर्शन करने, मेरा ध्यान करने तथा मेरी महिमा का श्रद्धापूर्वक कीर्तन करने की भक्तिमयी विधियों से मेरे प्रति दिव्य प्रेम उत्पन्न होता है। केवल शारीरिक सान्निध्य से वैसा ही फल प्राप्त नहीं होता। अत: तुम लोग अपने घरों को लौट जाओ।
 
श्लोक 28:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : गोविन्द के इन अप्रिय वचनों को सुनकर गोपियाँ खिन्न हो उठीं। उनकी बड़ी बड़ी आशाएँ ध्वस्त हो गईं और उन्हें दुर्लंघ्य चिन्ता होने लगी।
 
श्लोक 29:  गोपियाँ अपना सिर झुकाये तथा शोकपूर्ण गहरे श्वास से लाल लाल होंठों को सुखाते हुए अपने पैर के अँगूठे से धरती कुरेदने लगीं। उनकी आँखों से आँसू बहने लगे जिन्होंने अपने साथ उनके कज्जल को बहाते हुए उनके स्तनों पर लेपित सिन्दूर को धो डाला। इस तरह गोपियाँ अपने दुख के भार को चुपचाप सहन करती हुई खड़ी रहीं।
 
श्लोक 30:  यद्यपि कृष्ण उनके प्रेमी थे और उन्हीं के लिए उन सबों ने अपनी सारी इच्छाएँ त्याग दी थीं किन्तु वे ही उनसे प्रतिकूल होकर बोल रहे थे। तो भी वे उनके प्रति उसी तरह अनुरक्त बनी रहीं। अपना रोना बन्द करके उन्होंने अपनी आँखें पोंछीं और क्षोभ से युक्त अवरुद्ध वाणी से वे कहने लगीं।
 
श्लोक 31:  सुन्दर गोपिकाओं ने कहा : हे सर्वशक्तिमान, आपको इस निर्दयता से नहीं बोलना चाहिए। आप हमें ठुकरायें नहीं। हमने आपके चरणकमलों की भक्ति करने के लिए सारे भौतिक भोगों का परित्याग कर दिया है। अरे हठीले, आप हमसे उसी तरह प्रेम करें जिस तरह श्रीनारायण अपने उन भक्तों से प्रेम करते हैं, जो मुक्ति के लिए प्रयास करते हैं।
 
श्लोक 32:  हे प्रिय कृष्ण, एक धर्मज्ञ की तरह आपने हमें उपदेश दिया है कि स्त्रियों का उचित धर्म है कि वे अपने पतियों, बच्चों तथा अन्य सम्बन्धियों की निष्ठापूर्वक सेवा करें। हम मानती हैं कि यह सिद्धान्त वैध है किन्तु वास्तव में यह सेवा तो आपकी की जानी चाहिए। हे प्रभु, आप ही तो समस्त देहधारियों के सर्वप्रिय मित्र हैं। असल में आप उनके घनिष्टतम सम्बन्धी तथा उनकी आत्मा हैं।
 
श्लोक 33:  सुविज्ञ अध्यात्मवादीजन सदैव आपसे स्नेह करते हैं क्योंकि वे आपको अपनी असली आत्मा तथा शाश्वत प्रेमी मानते हैं। हमें अपने इन पतियों, बच्चों तथा सम्बन्धियों से क्या लाभ मिलता है, जो हमें केवल कष्ट देने वाले हैं? अतएव हे परम नियन्ता, हम पर कृपा करें। हे कमलनेत्र, आप अपना सान्निध्य चाहने की हमारी चिर-पोषित अभिलाषा आशा को छिन्न मत करें।
 
श्लोक 34:  आज तक हमारे मन गृहकार्यों में लीन थे किन्तु आपने सरलतापूर्वक हमारे मन तथा हमारे हाथों को हमारे गृहकार्य से चुरा लिया है। अब हमारे पाँव आपके चरणकमलों से एक पग भी दूर नहीं हटेंगे। हम व्रज वापस कैसे जा सकती हैं? हम वहाँ जाकर क्या करेंगी?
 
श्लोक 35:  हे कृष्ण, हमारे हृदयों के भीतर की अग्नि, जिसे आपने अपनी हँसी से युक्त चितवन के द्वारा तथा अपनी वंशी के मधुर संगीत से प्रज्ज्वलित किया है उस पर कृपा करके अपने होठों का अमृत डालिए। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो हे सखा, हम आपके वियोग की अग्नि में अपने शरीरों को भस्म कर देंगी और इस प्रकार योगियों की तरह ध्यान द्वारा आपके चरणकमलों के धाम को प्राप्त करेंगी।
 
श्लोक 36:  हे कमलनेत्र, जब भी लक्ष्मीजी आपके चरणकमलों के तलुवों का स्पर्श करती हैं, तो वे इसे उल्लास का अवसर मानती हैं। आप वन-वासियों को अत्यन्त प्रिय हैं अतएव हम भी आपके उन चरणकमलों का स्पर्श करेंगी। उसके बाद हम किसी भी व्यक्ति के समक्ष खड़ी तक नहीं होंगी क्योंकि तब हम आपके द्वारा पूरी तरह तुष्ट हो चुकी होंगी।
 
श्लोक 37:  जिन लक्ष्मीजी की कृपा-कटाक्ष के लिए देवतागण महान् प्रयास करते रहते हैं उन्हें भगवान् नारायण के वक्षस्थल पर सदैव विराजमान रहने का अनुपम स्थान प्राप्त है। फिर भी वे उनके चरणकमलों की धूल पाने के लिए इच्छुक रहती हैं, यद्यपि उन्हें इस धूल में तुलसीदेवी तथा भगवान् के अन्य बहुत से सेवकों को भी हिस्सा देना पड़ता है। इसी तरह हम भी शरण लेने के लिए आपके चरणकमलों की धूलि लेने आई हैं।
 
श्लोक 38:  अत: हे सभी संतापों का हरण करने वाले, हम पर कृपा करें। आपके चरणकमलों तक पहुँचने के लिए हमने अपने परिवारों तथा घरों को छोड़ा है और हमें आपकी सेवा करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहिए। हमारे हृदय आपकी सुन्दर हासमयी चितवन से उत्पन्न तीव्र इच्छाओं के कारण जल रहे हैं। हे पुरुष-रत्न, हमें अपनी दासियाँ बना लें।
 
श्लोक 39:  बालों के घुंघराले गुच्छों से घिरे हुए आपके मुख, कुण्डलों से विभूषित आपकी गालों, अमृत से पूर्ण आपके होठों तथा आपकी स्मितपूर्ण चितवन को देखकर तथा हमारे भय को भगाने वाली आपकी दो बलिष्ठ भुजाओं को एवं लक्ष्मीजी के आनन्द के एकमात्र स्रोत आपके वक्षस्थल को देखकर हम भी आपकी दासियाँ बनना चाहती हैं।
 
श्लोक 40:  हे कृष्ण, तीनों लोकों में ऐसी कौन स्त्री होगी जो आपकी वंशी से निकली मधुर तान से मोहित होकर अपने धार्मिक आचरण से विचलित न हो जाय? आपका सौन्दर्य तीनों लोकों को मंगलमय बनाता है। दरअसल गौवें, पक्षी, वृक्ष तथा हिरण तक भी आपके सुन्दर रूप को देखकर रोमांचित हो उठते हैं।
 
श्लोक 41:  स्पष्ट है कि आपने व्रजवासियों के भय तथा कष्ट को हरने के लिए इस जगत में उसी तरह जन्म लिया है, जिस तरह आदि भगवान् देव-लोक की रक्षा करते हैं। अत: हे दुखियारों के मित्र, अपना करकमल अपनी दासियों के सिरों पर तथा तप्त स्तनों पर रखिये।
 
श्लोक 42:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : गोपियों के व्याकुल शब्दों को सुनकर हँसते हुए, समस्त योगेश्वरों के भी ईश्वर भगवान् कृष्ण ने उन सबों के साथ कृपा करके आनन्द मनाया यद्यपि वे आत्मतुष्ट हैं।
 
श्लोक 43:  एकत्र गोपियों के बीच में अच्युत भगवान् कृष्ण वैसे ही लग रहे थे जैसे कि तारों से घिरा हुआ चन्द्रमा लगता है। इतने उदार कार्यकलापों वाले कृष्ण ने अपनी स्नेहमयी चितवनों से उनके मुखों को प्रफुल्लित कर दिया और उनकी खिली हुई हँसी से चमेली की कली जैसे दाँतों का तेज प्रकट हो रहा था।
 
श्लोक 44:  जब गोपियाँ उनका महिमा-गान करने लगीं तो सैकड़ों स्त्रियों के नायक ने प्रत्युत्तर में जोर जोर से गाना शुरू कर दिया। वे अपनी वैजयन्ती माला धारण किये हुए उनके बीच घूम घूम कर वृन्दावन के जंगल की शोभा बढ़ा रहे थे।
 
श्लोक 45-46:  श्रीकृष्ण गोपियों समेत यमुना के किनारे गये जहाँ बालू ठंडी पड़ रही थी और नदी की तरंगों के स्पर्श से वायु में कमलों की महक थी। वहाँ कृष्ण ने गोपियों को अपनी बाँहों में समेट लिया और उनका आलिंगन किया। उन्होंने लावण्यमयी व्रज-बालाओं के हाथ, बाल, जाँघें, नाभि एवं स्तन छू छू कर तथा खेल खेल में अपने नाखूनों से चिकोटते हुए उनके साथ विनोद करते, उन्हें तिरछी नजर से देखते और उनके साथ हँसते हुए उनमें कामदेव जागृत कर दिया। इस तरह भगवान् ने अपनी लीलाओं का आनन्द लूटा।
 
श्लोक 47:  पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण से ऐसा विशेष आदर पाकर गोपियाँ अपने पर गर्वित हो उठीं और उनमें से हरएक ने अपने को पृथ्वी की सर्वश्रेष्ठ स्त्री समझा।
 
श्लोक 48:  गोपियों को अपने सौभाग्य पर अत्यधिक गर्वित देखकर भगवान् केशव ने उनके इस गर्व से उबारना चाहा और उनपर और अधिक अनुग्रह करना चाहा। अत: वे तुरन्त अन्तर्धान हो गये।
 
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