श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 3: कृष्ण जन्म  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस अध्याय में बतलाया गया है कि भगवान् कृष्ण जिनका आदि रूप हरि है विष्णु रूप में प्रकट हुए जिससे उनके माता-पिता यह समझ लें कि उनका पुत्र भगवान् है। चूँकि वे कंस...
 
श्लोक 1-5:  तत्पश्चात् भगवान् के आविर्भाव की शुभ बेला में सारा ब्रह्माण्ड सतोगुण, सौन्दर्य तथा शान्ति से युक्त हो गया। रोहिणी नक्षत्र तथा अश्विनी जैसे तारे निकल आए। सूर्य, चन्द्रमा तथा अन्य नक्षत्र एवं ग्रह अत्यन्त शान्त थे। सारी दिशाएँ अत्यन्त सुहावनी लगने लगीं और मनभावन नक्षत्र निरभ्र आकाश में टिमटिमाने लगे। नगरों, ग्रामों, खानों तथा चरागाहों से अलंकृत पृथ्वी सर्व-मंगलमय प्रतीत होने लगी। निर्मल जल से युक्त नदियाँ प्रवाहित होने लगीं और सरोवर तथा विशाल जलाशय कमलों तथा कुमुदिनियों से पूर्ण होकर अत्यधिक सुन्दर लगने लगे। फूलों- पत्तियों से पूर्ण एवं देखने में सुहावने लगने वाले वृक्षों और हरे पौधों में कोयलों जैसे पक्षी तथा भौरों के झुण्ड देवताओं के लिए मधुर ध्वनि में गुंजार करने लगे। निर्मल मन्द वायु बहने लगी जिसका स्पर्श सुखद था और जो फूलों की गन्ध से युक्त थी। जब कर्मकाण्ड में लगे ब्राह्मणों ने वैदिक नियमानुसार अग्नि प्रज्ज्वलित की तो अग्नि इस वायु से अविचलित रहती हुई स्थिर भाव से जलने लगी। इस तरह जब अजन्मा भगवान् विष्णु प्रकट होने को हुए तो कंस जैसे असुरों तथा उसके अनुचरों द्वारा सताए गए साधुजनों तथा ब्राह्मणों को अपने हृदयों के भीतर शान्ति प्रतीत होने लगी और उसी समय स्वर्ग में दुन्दुभियाँ बज उठीं।
 
श्लोक 6:  किन्नर तथा गन्धर्व शुभ गीत गाने लगे, सिद्धों तथा चारणों ने शुभ प्रार्थनाएँ कीं तथा अप्सराओं के साथ विद्याधरियाँ प्रसन्नता से नाचने लगीं।
 
श्लोक 7-8:  देवताओं तथा महान् साधु पुरुषों ने प्रसन्न होकर फूलों की वर्षा की और आकाश में बादल उमड़ आए तथा मन्द स्वर से गर्जन करने लगे मानो समुद्र की लहरों की ध्वनि हो। तब हर हृदय में स्थित पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु रात्रि के गहन अंधकार में देवकी के हृदय से उसी तरह प्रकट हुए जिस तरह पूर्वी क्षितिज में पूर्ण चन्द्रमा उदय हुआ हो क्योंकि देवकी श्रीकृष्ण की ही कोटि की थीं।
 
श्लोक 9-10:  तब वसुदेव ने उस नवजात शिशु को देखा जिनकी अद्भुत आँखें कमल जैसी थीं और जो अपने चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा पद्म चार आयुध धारण किये थे। उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न था और उनके गले में चमकीला कौस्तुभ मणि था। वह पीताम्बर धारण किए थे, उनका शरीर श्याम घने बादल की तरह, उनके बिखरे बाल बड़े-बड़े तथा उनका मुकुट और कुण्डल असाधारण तौर पर चमकते वैदूर्यमणि के थे। वे करधनी, बाजूबंद, कंगन तथा अन्य आभूषणों से अलंकृत होने के कारण अत्यन्त अद्भुत लग रहे थे।
 
श्लोक 11:  जब वसुदेव ने अपने विलक्षण पुत्र को देखा तो उनकी आँखें आश्चर्य से विस्फारित रह गईं। उन्होंने परम हर्ष में मन ही मन दस हजार गाएँ एकत्र कीं और उन्हें ब्राह्मणों में वितरित कर दिया मानो कोई दिव्य उत्सव हो।
 
श्लोक 12:  हे भरतवंशी, महाराज परीक्षित, वसुदेव यह जान गए कि यह बालक पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् नारायण है। इस निष्कर्ष पर पहुँचते ही वे निर्भय हो गए। हाथ जोड़े, मस्तक नवाये तथा एकाग्रचित्त होकर वे उस बालक की स्तुति करने लगे जो अपने सहज प्रभाव के द्वारा अपने जन्म-स्थान को जगमग कर रहा था।
 
श्लोक 13:  वसुदेव ने कहा : हे भगवान्, आप इस भौतिक जगत से परे परम पुरुष हैं और आप परमात्मा हैं। आपके स्वरूप का अनुभव उस दिव्य ज्ञान द्वारा हो सकता है, जिससे आप भगवान् के रूप में समझे जा सकते हैं। अब आपकी स्थिति मेरी समझ में भलीभाँति आ गई है।
 
श्लोक 14:  हे भगवन्, आप वही पुरुष हैं जिसने प्रारम्भ में अपनी बहिरंगा शक्ति से इस भौतिक जगत की सृष्टि की। तीन गुणों (सत्त्व, रजस् तथा तमस्) वाले इस जगत की सृष्टि के बाद ऐसा लगता है कि आपने उसके भीतर प्रवेश किया है यद्यपि यथार्थ तो यह है कि आपने प्रवेश नहीं किया।
 
श्लोक 15-17:  सम्पूर्ण भौतिक शक्ति (महत् तत्त्व) अविभाज्य है, किन्तु भौतिक गुणों के कारण यह पृथ्वी जल, अग्नि, वायु तथा आकाश में विलग होती सी प्रतीत होती है। ये विलग हुई शक्तियाँ जीवभूत के कारण मिलकर विराट जगत को दृश्य बनाती हैं, किन्तु तथ्य तो यह है कि विराट जगत की सृष्टि के पहले से ही महत् तत्त्व विद्यमान रहता है। अत: महत् तत्त्व का वास्तव में सृष्टि में प्रवेश नहीं होता है। इसी तरह यद्यपि आप अपनी उपस्थिति के कारण हमारी इन्द्रियों द्वारा अनुभवगम्य हैं, किन्तु आप न तो हमारी इन्द्रियों द्वारा अनुभवगम्य हो पाते हैं न ही हमारे मन या वचनों द्वारा अनुभव किए जाते हैं (अवाङ्मनसागोचर )। हम अपनी इन्द्रियों से कुछ ही वस्तुएँ देख पाते हैं, सारी वस्तुएँ नहीं। उदाहरणार्थ, हम अपनी आँखों का प्रयोग देखने के लिए कर सकते हैं, आस्वाद के लिए नहीं। फलस्वरूप आप इन्द्रियों के परे हैं। यद्यपि आप प्रकृति के तीनों गुणों से संबद्ध हैं, आप उनसे अप्रभावित रहते हैं। आप हर वस्तु के मूल कारण हैं, सर्वव्यापी अविभाज्य परमात्मा हैं। अतएव आपके लिए कुछ भी बाहरी या भीतरी नहीं है। आपने कभी भी देवकी के गर्भ में प्रवेश नहीं किया प्रत्युत आप पहले से वहाँ उपस्थित थे।
 
श्लोक 18:  जो व्यक्ति प्रकृति के तीन गुणों से बने अपने दृश्य शरीर को आत्मा से स्वतंत्र मानता है, वह अस्तित्व के आधार से ही अनजान होता है और इसलिए वह मूढ़ है। जो विद्वान हैं, वे इस निर्णय को नहीं मानते क्योंकि विवेचना द्वारा यह समझा जा सकता है कि आत्मा से निराश्रित दृश्य शरीर तथा इन्द्रियाँ सारहीन हैं। यद्यपि इस निर्णय को अस्वीकार कर दिया गया है, किन्तु मूर्ख व्यक्ति इसे सत्य मानता है।
 
श्लोक 19:  हे प्रभु, विद्वान वैदिक पंडित कहते हैं कि सम्पूर्ण विश्व का सृजन, पालन एवं संहार आपके द्वारा होता है तथा आप प्रयास से मुक्त, प्रकृति के गुणों से अप्रभावित तथा अपनी दिव्य स्थिति में अपरिवर्तित रहते हैं। आप परब्रह्म हैं और आप में कोई विरोध नहीं है। प्रकृति के तीनों गुण— सतो, रजो तथा तमोगुण आपके नियंत्रण में हैं अत: सारी घटनाएँ स्वत: घटित होती हैं।
 
श्लोक 20:  हे भगवन्, आपका स्वरूप तीनों भौतिक गुणों से परे है फिर भी तीनों लोकों के पालन हेतु आप सतोगुणी विष्णु का श्वेत रंग धारण करते हैं, सृजन के समय जो रजोगुण से आवृत होता है आप लाल प्रतीत होते हैं और अन्त में अज्ञान से आवृत संहार के समय आप श्याम प्रतीत होते हैं।
 
श्लोक 21:  हे परमेश्वर, हे समस्त सृष्टि के स्वामी, आप इस जगत की रक्षा करने की इच्छा से मेरे घर में प्रकट हुए हैं। मुझे विश्वास है कि आप क्षत्रियों का बाना धारण करने वाले राजनीतिज्ञों के नायकत्व में जो असुरों की सेनाएँ संसार भर में विचरण कर रही हैं उनका वध करेंगे। निर्दोष जनता की सुरक्षा के लिए आपके द्वारा इनका वध होना ही चाहिए।
 
श्लोक 22:  हे परमेश्वर, हे देवताओं के स्वामी, यह भविष्यवाणी सुनकर कि आप हमारे घर में जन्म लेंगे और उसका वध करेंगे, इस असभ्य कंस ने आपके कई अग्रजों को मार डाला है। वह ज्योंही अपने सेनानायकों से सुनेगा कि आप प्रकट हुए हैं, वह आपको मारने के लिए हथियार समेत तुरन्त ही आ धमकेगा।
 
श्लोक 23:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : तत्पश्चात् यह देखकर कि उनके पुत्र में भगवान् के सारे लक्षण हैं, कंस से अत्यधिक भयभीत तथा असामान्य रूप से विस्मित देवकी भगवान् से प्रार्थना करने लगीं।
 
श्लोक 24:  श्रीदेवकी ने कहा : हे भगवन, वेद अनेक हैं। उसमें से कुछ आपको शब्दों तथा मन द्वारा अव्यक्त बतलाते हैं फिर भी आप सम्पूर्ण विश्व के उद्गम हैं। आप ब्रह्म हैं, सभी वस्तुओं से बड़े और सूर्य के समान तेज से युक्त। आपका कोई भौतिक कारण नहीं, आप परिवर्तन तथा विचलन से मुक्त हैं और आपकी कोई भौतिक इच्छाएँ नहीं हैं। इस तरह वेदों का कथन है कि आप ही सार हैं। अत: हे प्रभु, आप समस्त वैदिक कथनों के उद्गम हैं और आपको समझ लेने पर मनुष्य हर वस्तु धीरे धीरे समझ जाता है। आप ब्रह्मज्योति तथा परमात्मा से भिन्न हैं फिर भी आप उनसे भिन्न नहीं हैं। आपसे ही सब वस्तुएँ उद्भूत हैं। दरअसल आप ही समस्त कारणों के कारण हैं, आप समस्त दिव्य ज्ञान की ज्योति भगवान् विष्णु हैं।
 
श्लोक 25:  लाखों वर्षों बाद विश्व-संहार के समय जब सारी व्यक्त तथा अव्यक्त वस्तुएँ काल के वेग से नष्ट हो जाती हैं, तो पाँचों स्थूल तत्त्व सूक्ष्म स्वरूप ग्रहण करते हैं और व्यक्त वस्तुएँ अव्यक्त बन जाती हैं। उस समय आप ही रहते हैं और आप अनन्त शेष-नाग कहलाते हैं।
 
श्लोक 26:  हे भौतिक शक्ति के प्रारम्भकर्ता, यह अद्भुत सृष्टि शक्तिशाली काल के नियंत्रण में कार्य करती है, जो सेकंड, मिनट, घंटा तथा वर्षों में विभाजित है। यह काल तत्त्व, जो लाखों वर्षों तक फैला हुआ है, भगवान् विष्णु का ही अन्य रूप है। आप अपनी लीलाओं के लिए काल के नियंत्रक की भूमिका अदा करते हैं, किन्तु आप समस्त सौभाग्य के आगार हैं। मैं पूरी तरह आपकी शरणागत हूँ।
 
श्लोक 27:  इस भौतिक जगत में कोई भी व्यक्ति जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा तथा रोग—इन चार नियमों से छूट नहीं पाया भले ही वह विविध लोकों में क्यों न भाग जाए। किन्तु हे प्रभु, अब चूँकि आप प्रकट हो चुके हैं अत: मृत्यु आपके भय से दूर भाग रही है और सारे जीव आपकी दया से आपके चरणकमलों की शरण प्राप्त करके पूर्ण मानसिक शान्ति की नींद सो रहे हैं।
 
श्लोक 28:  हे प्रभु, आप अपने भक्तों के भय को दूर करने वाले हैं अतएव आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप कंस के विकराल भय से हमें बचाइए और हमें संरक्षण प्रदान कीजिए। योगीजन आपके विष्णु रूप का ध्यान में अनुभव करते हैं। कृपया इस रूप को उनके लिए अदृश्य बना दीजिए जो केवल भौतिक आँखों से देख सकते हैं।”
 
श्लोक 29:  हे मधुसूदन, आपके प्रकट होने से मैं कंस के भय से अधिकाधिक अधीर हो रही हूँ। अत: कुछ ऐसा कीजिए कि वह पापी कंस यह न समझ पाए कि आपने मेरे गर्भ से जन्म लिया है।
 
श्लोक 30:  हे प्रभु, आप सर्वव्यापी भगवान् हैं और आपका यह चतुर्भुज रूप, जिसमें आप शंख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण किए हुए हैं, इस जगत के लिए अप्राकृत है। कृपया इस रूप को समेट लीजिए (और सामान्य मानवी बालक बन जाइए जिससे मैं आपको कहीं छिपाने का प्रयास कर सकूँ)।
 
श्लोक 31:  संहार के समय चर तथा अचर जीवों से युक्त सारी सृष्टियाँ आपके दिव्य शरीर में प्रवेश कर जाती हैं और बिना कठिनाई के वहीं ठहरी रहती हैं। किन्तु अब वही दिव्य रूप मेरे गर्भ से जन्म ले चुका है। लोग इस पर विश्वास नहीं करेंगे और मैं हँसी की पात्र बन जाऊँगी।
 
श्लोक 32:  श्रीभगवान् ने उत्तर दिया: हे सती माता, आप अपने पूर्व जन्म में स्वायंभुव मनु कल्प में पृश्नि नाम से विख्यात थीं और वसुदेव सुतपा नामक अत्यन्त पवित्र प्रजापति थे।
 
श्लोक 33:  जब भगवान् ब्रह्मा ने तुम दोनों को सन्तान उत्पन्न करने का आदेश दिया तो तुम दोनों ने पहले अपनी इन्द्रियों को वश में रखते हुए कठोर तपस्या की।
 
श्लोक 34-35:  हे माता-पिता, तुम लोगों ने विभिन्न ऋतुओं के अनुसार वर्षा, तूफान, कड़ी धूप तथा कड़ाके की ठंड सभी प्रकार की असुविधाएँ सही थीं। तुमने शरीर के भीतर वायु रोकने के लिए प्राणायाम करके तथा केवल हवा और वृक्षों से गिरे सूखे पत्ते खाकर अपने मन से सारे मैल को साफ कर दिया था। इस तरह मेरे वर की इच्छा से तुम लोगों ने शान्त चित्त से मेरी पूजा की थी।
 
श्लोक 36:  इस तरह तुम दोनों ने मेरी चेतना (कृष्णभावना) में कठिन तपस्या करते हुए बारह हजार दिव्य वर्ष बिता दिए।
 
श्लोक 37-38:  हे निष्पाप माता देवकी, उन बारह हजार दिव्य वर्षों के बीत जाने पर, जिनमें तुम अपने हृदय में परम श्रद्धा, भक्ति तथा तपस्यापूर्वक निरन्तर मेरा ध्यान करती रही, मैं तुम से अत्यन्त प्रसन्न हुआ था। चूँकि मैं वर देने वालों में सर्वश्रेष्ठ हूँ, अत: मैं इसी कृष्ण रूप में प्रकट हुआ कि तुम मनवाञ्छित वर माँगो। तब तुमने मेरे सदृश पुत्र-प्राप्ति की इच्छा प्रकट की थी।
 
श्लोक 39:  पति-पत्नी रूप में सन्तानहीन होने से आप लोग विषयी-जीवन के प्रति आकृष्ट हुए क्योंकि देवमाया के प्रभाव अर्थात् दिव्य प्रेम से तुम लोग मुझे अपने पुत्र के रूप में प्राप्त करना चाह रहे थे इसलिए तुम लोगों ने इस जगत से कभी भी मुक्त होना नहीं चाहा।
 
श्लोक 40:  जब तुम वर प्राप्त कर चुके और मैं अन्तर्धान हो गया तो तुम मुझ जैसा पुत्र प्राप्त करने के उद्देश्य से विषयभोग में लग गए और मैंने तुम्हारी इच्छा पूरी कर दी।
 
श्लोक 41:  चूँकि मुझे सरलता तथा शील के दूसरे गुणों में तुम जैसा बढ़ा-चढ़ा अन्य कोई व्यक्ति नहीं मिला अत: मैं पृश्नि-गर्भ के रूप में उत्पन्न हुआ।
 
श्लोक 42:  मैं अगले युग में तुम दोनों से, माता अदिति तथा पिता कश्यप से पुन: प्रकट हुआ। मैं उपेन्द्र नाम से विख्यात हुआ और बौना होने के कारण मैं वामन भी कहलाया।
 
श्लोक 43:  हे परम सती माता, मैं वही व्यक्ति अब तीसरी बार तुम दोनों के पुत्र रूप में प्रकट हुआ हूँ। मेरे वचनों को सत्य मानें।
 
श्लोक 44:  मैंने तुम लोगों को यह विष्णु-रूप मात्र अपने पूर्वजन्मों का स्मरण कराने के लिए दिखलाया है। अन्यथा यदि मैं सामान्य बालक की तरह प्रकट होता तो तुम लोगों को विश्वास न हो पाता कि भगवान् विष्णु सचमुच प्रकट हुए हैं।
 
श्लोक 45:  तुम पति-पत्नी निरन्तर अपने पुत्र के रूप में मेरा चिन्तन करते हो, किन्तु तुम यह जानते रहते हो कि मैं भगवान् हूँ। इस तरह निरन्तर स्नेहपूर्वक मेरा चिन्तन करते हुए तुम लोग सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करोगे अर्थात् भगवद्धाम वापस जाओगे।
 
श्लोक 46:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अपने माता-पिता को इस तरह उपदेश देने के बाद भगवान् कृष्ण मौन रहे। तब उन्हीं के सामने अपनी अंतरंगा शक्ति से उन्होंने अपने आप को एक छोटे शिशु के रूप में बदल लिया। (दूसरे शब्दों में, उन्होंने स्वयं को अपने आदि रूप में रूपान्तरित कर दिया—कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् )।
 
श्लोक 47:  तत्पश्चात् भगवान् की प्रेरणा से जब वसुदेव नवजात शिशु को सूतिकागृह से ले जाने वाले थे तो बिलकुल उसी क्षण भगवान् की आध्यात्मिक शक्ति योगमाया ने महाराज नन्द की पत्नी की पुत्री के रूप में जन्म लिया।
 
श्लोक 48-49:  योगमाया के प्रभाव से सारे द्वारपाल गहरी नींद में सो गए, उनकी इन्द्रियाँ निष्क्रिय हो गईं और घर के अन्य लोग भी गहरी नींद में सो गए। जिस प्रकार सूर्य के उदय होने पर अंधकार स्वत: छिप जाता है उसी तरह वसुदेव के प्रकट होने पर लोहे की कीलों से जड़े तथा भीतर से लोहे की जंजीरों से जकड़े हुए बंद दरवाजे स्वत: खुल गए। चूँकि आकाश में बादल मन्द गर्जना कर रहे थे और झड़ी लगाए हुए थे अत: भगवान् के अंश अनन्त नाग दरवाजे से ही वसुदेव तथा दिव्य शिशु की रक्षा करने के लिए अपने फण फैलाकर वसुदेव के पीछे लग लिए।
 
श्लोक 50:  इन्द्र द्वारा बरसायी गयी निरन्तर वर्षा के कारण यमुना नदी में पानी चढ़ आया था और उसमें भयानक भँवरों के साथ फेन उठ रहा था। किन्तु जिस तरह पूर्वकाल में हिन्द महासागर ने भगवान् रामचन्द्र को सेतु बनाने की अनुमति देकर रास्ता प्रदान किया था उसी तरह यमुना नदी ने वसुदेव को रास्ता देकर उन्हें नदी पार करने दी।
 
श्लोक 51:  जब वसुदेव नन्द महाराज के घर पहुँचे तो देखा कि सारे ग्वाले गहरी नींद में सोए हुए थे। उन्होंने अपने पुत्र को यशोदा के पलँग में रख दिया, उसकी पुत्री को, जो योगमाया की अंश थी, उठाया और अपने घर कंस के बंदीगृह वापस लौट आए।
 
श्लोक 52:  वसुदेव ने लडक़ी को देवकी के पलँग पर रख दिया और अपने पाँवों में बेडिय़ाँ पहन लीं तथा पहले की तरह बन गए।
 
श्लोक 53:  शिशु जनने की पीड़ा से थककर यशोदा नींद के वशीभूत हो गई और यह नहीं समझ पाईं कि उन्हें लडक़ा हुआ है या लडक़ी।
 
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