पुन: कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो शरीर को अपर्याप्त समझकर शरीर का तिरस्कार करते हैं। वे भी मूर्खों की ही श्रेणी में आते हैं। इस शरीर का न तो तिरस्कार किया जा सकता है न ही इसे पर्याप्त कहकर स्वीकार किया जा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान् तथा शरीर एवं आत्मा, भगवान् की ही शक्तियाँ हैं जिनका वर्णन स्वयं भगवान् ने भगवद्गीता (७.४-५) में किया है— भूमिरापोऽनलोवायु: खं मनो बुद्धिरेव च। अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥ अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्। जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥ “पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार ये मेरी आठ विभिन्न भौतिक शक्तियाँ हैं। किन्तु हे महाबाहु अर्जुन! इस अपरा शक्ति के अतिरिक्त भी मेरी एक पराशक्ति है, जो उन समस्त जीवों से युक्त है, जो भौतिक प्रकृति से संघर्ष कर रहे हैं और ब्रह्माण्ड को बनाये रखे हुए हैं।” अतएव शरीर का भगवान् से वैसा ही सम्बन्ध होता है जैसा आत्मा का होता है। चूँकि दोनों ही भगवान् की शक्तियाँ हैं अतएव इनमें से कोई भी मिथ्या नहीं है क्योंकि उनका आगम वास्तव में हुआ होता है। जो जीवन के इस रहस्य को नहीं जानता वह अबुध: कहा जाता है। वैदिक आदेशों के अनुसार—ऐतदात्म्यम् इदं सर्वम्, सर्वं खल्विदं ब्रह्म—सारी वस्तुएँ परब्रह्म हैं। अतएव शरीर तथा आत्मा दोनों ही ब्रह्म हैं क्योंकि पदार्थ तथा आत्मा ब्रह्म से उद्भूत हैं। वेदों के निर्णयों से ज्ञात न होने के कारण कुछ लोग भौतिक प्रकृति को पदार्थ के रूप में स्वीकार करते हैं और कुछ लोग आत्मा को पदार्थ मानते हैं, किन्तु वास्तव में ब्रह्म ही पदार्थ है। ब्रह्म समस्त कारणों का कारण है। इस जगत के अवयव तथा कारण ब्रह्म है और इस जगत के अवयवों को हम ब्रह्म से स्वतंत्र नहीं रख सकते। साथ ही, चूँकि इस भौतिक जगत के अवयव तथा इसका कारण ब्रह्म ही है अतएव ये दोनों ही सत्य हैं अत: ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या वक्तव्य की कोई वैधता नहीं है। यह जगत मिथ्या नहीं है। ज्ञानी लोग इस जगत का निषेध करते हैं और मूर्ख लोग इसे ही सत्य मानते हैं। इस तरह दोनों ही दिग्भ्रमित रहते हैं। यद्यपि आत्मा की तुलना में शरीर महत्त्वपूर्ण नहीं है, किन्तु हम यह तो नहीं कह सकते कि वह मिथ्या है। फिर भी शरीर नश्वर है और जो मूर्ख भौतिकतावादी व्यक्ति हैं, जिन्हें आत्मा का पूरा-पूरा ज्ञान नहीं है, नश्वर शरीर को सत्य मानकर उसको सजाने-सँवारने में लगे रहते हैं। शरीर को मिथ्या मानकर उसका निषेध तथा शरीर को सर्वस्व मानना इन दोनों दोषों से—बचा जा सकता है यदि कृष्णभावनामृत पद को प्राप्त कर लिया जाए। यदि हम इस जगत को मिथ्या मानते हैं, तो असुरों की कोटि में आ जाते हैं, जो यह कहते हैं कि यह जगत मिथ्या है, इसका कोई आधार नहीं है और ईश्वर इसका नियंत्रक नहीं है (असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् )। भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय में इसे असुरों का निर्णय कहा गया है। |