श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 31: गोपियों के विरह गीत  »  श्लोक 15
 
 
श्लोक  10.31.15 
अटति यद् भवानह्नि काननं
त्रुटि युगायते त्वामपश्यताम् ।
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते
जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद् दृशाम् ॥ १५ ॥
 
शब्दार्थ
अटति—घूमते हो; यत्—जब; भवान्—आप; अह्नि—दिन में; काननम्—जंगल में; त्रुटि—लगभग १/१७०० सेकंड; युगायते—एक युग के बराबर हो जाता है; त्वाम्—तुम; अपश्यताम्—न देखने वालों के लिए; कुटिल—घुँघराले; कुन्तलम्— बालों का गुच्छा; श्री—सुन्दर; मुखम्—मुँह; च—तथा; ते—तुम्हारा; जड:—मूर्ख; उदीक्षताम्—उत्सुकता से देखने वालों को; पक्ष्म—पलकों का; कृत्—बनाने वाला; दृशाम्—आँखों का ।.
 
अनुवाद
 
 जब आप दिन के समय जंगल चले जाते हैं, तो क्षण का एक अल्पांश भी हमें युग सरीखा लगता है क्योंकि हम आपको देख नहीं पातीं। और जब हम आपके सुन्दर मुख को जो घुँघराले बालों से सुशोभित होने के कारण इतना सुन्दर लगता है, देखती भी हैं, तो ये हमारी पलकें हमारे आनन्द में बाधक बनती हैं, जिन्हें मूर्ख स्रष्टा ने बनाया है।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥