श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 31: गोपियों के विरह गीत  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  10.31.16 
पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवा-
नतिविलङ्‌घ्य तेऽन्त्यच्युतागता: ।
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिता:
कितव योषित: कस्त्यजेन्निशि ॥ १६ ॥
 
शब्दार्थ
पति—पति; सुत—बालक; अन्वय—पूर्वज; भ्रातृ—भाई; बान्धवान्—तथा अन्य सम्बन्धियों को; अतिविलङ्घ्य—पूर्णतया उपेक्षा करके; ते—तुम्हारी; अन्ति—उपस्थिति में; अच्युत—हे अच्युत; आगता:—आई हुई; गति—हमारी चालढाल का; विद:—प्रयोजन को जानने वाले; तव—तुम्हारा; उद्गीत—(वंशी के) तेज गीत से; मोहिता:—मोहित; कितव—हे छलिया; योषित:—स्त्रियों को; क:—कौन; त्यजेत्—त्याग करेगा; निशि—रात में ।.
 
अनुवाद
 
 हे अच्युत, आप भलीभाँति जानते हैं कि हम क्यों आई हैं। आप जैसे छलिये के अतिरिक्त भला और कौन होगा, जो अर्धरात्रि में उसकी बाँसुरी के तेज संगीत से मोहित होकर उसे देखने के लिए आई तरुणी स्त्रियों का परित्याग करेगा? आपके दर्शनों के लिए ही हमने अपने पतियों, बच्चों, बड़े-बूढ़ों, भाइयों तथा अन्य रिश्तेदारों को पूरी तरह ठुकरा दिया है।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥