श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 31: गोपियों के विरह गीत  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  10.31.6 
व्रजजनार्तिहन् वीर योषितां
निजजनस्मयध्वंसनस्मित ।
भज सखे भवत्किङ्करी: स्म नो
जलरुहाननं चारु दर्शय ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
व्रज-जन—व्रज के लोगों के; आर्ति—कष्ट के; हन्—नष्ट करने वाले; वीर—हे वीर; योषिताम्—स्त्रियों के; निज—अपने; जन—लोगों का; स्मय—गर्व; ध्वंसन—विनष्ट करते हुए; स्मित—मंद हँसी; भज—स्वीकार करें; सखे—हे मित्र; भवत्— आपकी; किङ्करी:—दासियाँ; स्म—निस्सन्देह; न:—हमको; जल-रुह—कमल; आननम्—मुख वाले; चारु—सुन्दर; दर्शय— कृपा करके दिखाइये ।.
 
अनुवाद
 
 हे व्रज के लोगों के कष्टों को विनष्ट करने वाले, समस्त स्त्रियों के वीर, आपकी हँसी आपके भक्तों के मिथ्या अभिमान को चूर चूर करती है। हे मित्र, आप हमें अपनी दासियों के रूप में स्वीकार करें और हमें अपने सुन्दर कमल-मुख का दर्शन दें।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥