श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 32: पुन: मिलाप  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  10.32.1 
श्रीशुक उवाच
इति गोप्य: प्रगायन्त्य: प्रलपन्त्यश्च चित्रधा ।
रुरुदु: सुस्वरं राजन् कृष्णदर्शनलालसा: ॥ १ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-शुक: उवाच—श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति—इस प्रकार, जैसाकि ऊपर कहा गया; गोप्य:—गोपियाँ; प्रगायन्त्य:— गाती हुईं; प्रलपन्त्य:—बातें करतीं; च—तथा; चित्रधा—अनेक मनमोहक विधियों से; रुरुदु:—चिल्लाईं; सु-स्वरम्—तेजी से; राजन्—हे राजा; कृष्ण-दर्शन—कृष्ण का दर्शन करने की; लालसा:—लालसाएँ ।.
 
अनुवाद
 
 शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्, इस तरह गाकर तथा अपने हृदय की बातों को विविध मोहक विधियों से प्रकट करके गोपियाँ जोर जोर से रोने लगीं। वे कृष्ण का दर्शन करने के लिए अत्यन्त लालायित थीं।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥