श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 32: पुन: मिलाप  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  10.32.21 
एवं मदर्थोज्झितलोकवेद-
स्वानां हि वो मय्यनुवृत्तयेऽबला: ।
मयापरोक्षं भजता तिरोहितं
मासूयितुं मार्हथ तत् प्रियं प्रिया: ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
एवम्—इस प्रकार; मत्—मेरे; अर्थ—हेतु; उज्झित—त्यागकर; लोक—सांसारिक मत; वेद—वेदों का मत; स्वानाम्—तथा सम्बन्धियों को; हि—निस्सन्देह; व:—तुम्हारा; मयि—मेरे लिए; अनुवृत्तये—प्रेमाधिक्य के लिए; अबला:—हे बालाओ; मया—मेरे द्वारा; अपरोक्षम्—तुम्हारी दृष्टि से ओझल; भजता—वास्तव में प्रेम करने वाला; तिरोहितम्—अन्तर्धान; मा—मेरे साथ; असूयितुम्—शत्रुता होने से; म अर्हथ—नहीं चाहिए; तत्—अत:; प्रियम्—अपने प्रियतम के साथ; प्रिया:—हे प्रियाओ ।.
 
अनुवाद
 
 हे बालाओ, यह जानते हुए कि तुम सबों ने मेरे ही लिए लोकमत, वेदमत तथा अपने सम्बन्धियों के अधिकार को त्याग दिया है मैंने जो किया वह अपने प्रति तुम लोगों की आसक्ति को बढ़ाने के लिए ही किया है। तुम लोगों की दृष्टि से सहसा अपने को ओझल बनाकर भी मैं तुम लोगों से प्रेम करना रोक नहीं पाया। अत: प्रिय गोपियो, तुम अपने प्रेमी अर्थात् मेरे प्रति दुर्भावनाओं को स्थान न दो।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर भगवान् इंगित करते हैं कि यद्यपि गोपियाँ उनके प्रति अपने प्रेम में पहले से पूर्ण थीं फिर भी उनकी पूर्णता को अकल्पनीय रूप से बढ़ाने और संसार के समक्ष दृष्टान्त प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने वैसा किया।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥