न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां
स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि व: ।
या माभजन् दुर्जरगेहशृङ्खला:
संवृश्च्य तद् व: प्रतियातु साधुना ॥ २२ ॥
शब्दार्थ
न—नहीं; पारये—बना पाने में समर्थ; अहम्—मैं; निरवद्य-संयुजाम्—छल से पूर्णतया मुक्त होने वालों के प्रति; स्व-साधु- कृत्यम्—उचित हर्जाना; विबुध-आयुषा—देवताओं के बराबर आयु में; अपि—यद्यपि; व:—तुमको; या:—जो; मा—मुझको; अभजन्—पूजा कर चुके हैं; दुर्जर—जीत पाना कठिन; गेह-शृङ्खला:—गृहस्थ जीवन की बेड़ी; संवृश्च्य—काट कर; तत्— वह; व:—तुमको; प्रतियातु—लौटाया जाय; साधुना—शुभ कर्म द्वारा ।.
अनुवाद
मैं आपलोगों की निस्पृह सेवा के ऋण को ब्रह्मा के जीवनकाल की अवधि में भी चुका नहीं पाऊँगा। मेरे साथ तुमलोगों का सम्बन्ध कलंक से परे है। तुमने उन समस्त गृह-बन्धनों को तोड़ते हुए मेरी पूजा की है जिन्हें तोड़ पाना कठिन होता है। अतएव तुम्हारे अपने यशस्वी कार्य ही इसकी क्षतिपूर्ति कर सकते हैं।
तात्पर्य
इस श्लोक के भावार्थ तथा शब्दार्थ श्रीचैतन्य चरितामृत (आदि ४.१८०) में श्रील प्रभुपाद की अंग्रेजी टीका से लिये गये हैं।
निष्कर्ष यह है कि गोपियाँ भगवान् की क्षणिक अनुपस्थिति में अपने आचरण द्वारा धन्य हो गईं। उनके तथा भगवान् के मध्य पारस्परिक प्रेम में आशातीत वृद्धि हो गई। यह सिद्धि कृष्ण तथा उनके प्रिय भक्तों की है।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के दसवें स्कंध के अन्तर्गत ‘पुन: मिलाप’ नामक बत्तीसवें अध्याय के श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद के विनीत सेवकों द्वारा रचित तात्पर्य पूर्ण हुए।
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