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अध्याय 33: रास नृत्य |
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संक्षेप विवरण: इस अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण के उस रासनृत्य का वर्णन है, जिसे उन्होंने यमुना नदी के तटपर जंगल में अपनी प्रिय सखियों के साथ रचाया।
भगवान् श्रीकृष्ण दिव्य रसों... |
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श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब गोपियों ने भगवान् को अत्यन्त मनोहारी इन शब्दों में कहते सुना तो वे उनके विछोह से उत्पन्न अपना दुख भूल गईं। उनके दिव्य अंगों का स्पर्श पाकर उन्हें लगा कि उनकी सारी इच्छाएँ पूर्ण हो गईं। |
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श्लोक 2: तत्पश्चात् भगवान् गोविन्द ने वहीं यमुना के तट पर उन स्त्री-रत्न श्रद्धालु गोपियों के संग में रासनृत्य लीला प्रारंभ की जिन्होंने प्रसन्नता के मारे अपनी बाँहों को एक दूसरे के साथ श्रृंखलाबद्ध कर दिया। |
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श्लोक 3: तब उल्लासपूर्ण रासनृत्य प्रारम्भ हुआ जिसमें गोपियाँ एक गोलाकार घेरे में सध गईं। भगवान् कृष्ण ने अपना विस्तार किया और गोपियों के प्रत्येक जोड़े के बीच-बीच प्रविष्ट हो गये। ज्योंही योगेश्वर ने अपनी भुजाओं को उनके गलों के चारों ओर रखा तो प्रत्येक युवती ने सोचा कि वे केवल उसके ही पास खड़े हैं। इस रासनृत्य को देखने के लिए देवता तथा उनकी पत्नियाँ उत्सुकता से गद्गद हुये जा रहे थे। शीघ्र ही आकाश में उनके सैकड़ों विमानों की भीड़ लग गई। |
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श्लोक 4: तब आकाश में दुन्दुभियाँ बज उठीं और फूलों की वर्षा होने लगी। मुख्य गन्धर्वों ने अपनी पत्नियों के साथ भगवान् कृष्ण के निर्मल यश का गायन किया। |
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श्लोक 5: जब गोपियाँ रासनृत्य के मण्डल में अपने प्रियतम कृष्ण के साथ नृत्य करने लगीं तो उनके कंगनों, पायलों तथा करधनी के घुंघरुओं से तुमुल ध्वनि उठती थी। |
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श्लोक 6: नृत्य करती गोपियों के बीच भगवान् कृष्ण अत्यन्त शोभायमान प्रतीत हो रहे थे जिस तरह सोने के आभूषणों के बीच मरकत मणि शोभा पाता है। |
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श्लोक 7: जब गोपियों ने कृष्ण की प्रशंसा में गीत गाया, तो उनके पाँवों ने नृत्य किया, उनके हाथों ने इशारे किये और उनकी भौंहें हँसी से युक्त होकर मटकने लगीं। जिनकी वेणियाँ तथा कमर की पेटियाँ मजबूत बँधी हुई थीं, जिनकी कमरें लचकती हुई थी, जिनके मुखों पर पसीने की बूँदे झलकती थीं, जिनके स्तनों को ढके हुए वस्त्र इधर उधर हिलते थे तथा जिनके कानों की बालियाँ गालों पर हिल-डुल रही थीं, कृष्ण की ऐसी तरुणी प्रियाएँ बादल के समूह में बिजली की कौंध की तरह चमक रही थीं। |
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श्लोक 8: विविध रंगों से रँगे कंठों वाली, माधुर्यप्रेम का आनन्द लूटने की इच्छुक गोपियों ने जोर जोर से गाना गाया और नृत्य किया। वे कृष्ण का स्पर्श पाकर अति-आनन्दित थीं और उन्होंने जो गीत गाये उनसे सारा ब्रह्माण्ड भर गया। |
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श्लोक 9: एक गोपी ने भगवान् मुकुन्द के गाने के साथ साथ शुद्ध मधुर राग गाया जो कृष्ण के स्वर से भी उच्च सुर ऊँचे स्वर में था। इससे कृष्ण प्रसन्न हुए और “बहुत अच्छा, बहुत अच्छा” कहकर उसकी प्रशंसा की। तत्पश्चात् एक दूसरी गोपी ने वही राग अलापा किन्तु वह ध्रुपद के विशेष छंद में था। कृष्ण ने उसकी भी प्रशंसा की। |
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श्लोक 10: जब एक गोपी रासनृत्य से थक गई तो वह अपनी बगल में खड़े गदाधर कृष्ण की ओर मुड़ी और उसने अपनी बाँह से उनके कन्धे को पकड़ लिया। नाचने से उसके कँगन तथा बालों में लगे फूल ढीले पड़ गये थे। |
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श्लोक 11: कृष्ण ने अपनी बाँह एक गोपी के कन्धे पर रख दी जिसमें से प्राकृतिक नीले कमल की सुगन्ध के साथ उसमें लेपित चन्दन की मिली हुई सुगन्ध आ रही थी। ज्योंही गोपी ने उस सुगन्ध का आस्वादन किया त्योंही हर्ष से उसे रोमांच हो उठा और उसने उनकी बाँह को चूम लिया। |
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श्लोक 12: एक गोपी ने कृष्ण के गाल पर अपना गाल रख दिया जो उसके कुंडलों से सुशोभित था और उसके नाचते समय चमचमा रहा था। तब कृष्ण ने बड़ी ही सावधानी से उसे अपना चबाया पान दे दिया। |
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श्लोक 13: एक अन्य नाचती तथा गाती हुई गोपी, जिसके पाँवों के नूपुर और कमर की करधनी के घुंघरू बज रहे थे, थक गई अत: उसने अपने पास ही खड़े भगवान् अच्युत के सुखद करकमल को अपने स्तनों के ऊपर रख लिया। |
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श्लोक 14: लक्ष्मी जी के विशिष्टप्रिय भगवान् अच्युत को अपने घनिष्ठ प्रेमी के रूप में पाकर गोपियों ने अथाह आनन्द लूटा। वे उनको अपनी भुजाओं में लपेटे थे और ये उनके यश का गान कर रही थीं। |
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श्लोक 15: कानों के पीछे लगे कमल के फूल, गालों को अलंकृत कर रही बालों की लटें तथा पसीने की बूँदें गोपियों के मुखों की शोभा बढ़ा रही थीं। उनके बाजुबंदों तथा घुंघरुओं की रुनझुन से जोर की संगीतात्मक ध्वनि उत्पन्न हो रही थी और उनके जूड़े बिखरे हुए थे। इस तरह गोपियाँ भगवान् के साथ रासनृत्य के स्थल पर नाचने लगीं और उनका साथ देते हुए भौंरों के झुंड गुनगुनाने लगे। |
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श्लोक 16: इस प्रकार आदि भगवान् नारायण, लक्ष्मीपति भगवान् कृष्ण ने व्रज की युवतियों का आलिंगन करके, उन्हें दुलार करके तथा अपनी तिरछी चंचल हँसी से उन्हें प्रेमपूर्वक निहार करके उनके साथ में आनन्द लूटा। यह वैसा ही था जैसे कि कोई बालक अपनी परछाईं के साथ खेल रहा हो। |
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श्लोक 17: उनका शारीरिक संसर्ग पा लेने से गोपियों की इन्द्रियाँ हर्ष से अभिभूत हो गईं जिसके कारण वे अपने बाल, अपने वस्त्र तथा स्तनों के आवरणों को अस्तव्यस्त होने से रोक न सकीं। हे कुरुवंश के वीर, उनकी मालाएँ तथा उनके गहने बिखर गये। |
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श्लोक 18: देवताओं की पत्नियाँ अपने विमानों से कृष्ण की क्रीड़ाएँ देखकर सम्मोहित हो गईं और कामवासना से विचलित हो उठीं। वस्तुत: चन्द्रमा तक भी अपने पार्षद तारों समेत चकित हो उठा। |
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श्लोक 19: वहाँ पर जितनी गोपिकाएँ थीं उतने ही रूपों में विस्तार करके, भगवान् ने खेल खेल में उनकी संगति का आनन्द लूटा यद्यपि वे आत्माराम हैं। |
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श्लोक 20: यह देखकर कि गोपियाँ माधुर्य विहार करने से थक गई थीं, हे राजन (परिक्षित), दयालु श्रीकृष्ण ने बड़े ही प्रेम से उनके मुखों को अपने सुखद हाथों से पोंछा। |
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श्लोक 21: अपने गालों के सौंदर्य, घुँघराले बालों के तेज एवं सुनहरे कुंडलों की चमक से मधुरित हँसीयुक्त चितवनों से गोपियों ने अपने नायक को सम्मान दियाकिया। उनके नखों के स्पर्श से पुलकित होकर वे उनकी शुभ दिव्य लीलाओं का गान करने लगीं। |
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श्लोक 22: भगवान् श्रीकृष्ण की माला गोपियों के साथ माधुर्य विहार करते समय कुचल गई थी और उनके स्तनों के कुंकुम से सिंदूरी रंग की हो गई थी। गोपियों की थकान मिटाने के लिए कृष्ण यमुना के जल में घुस गये, जिनका पीछा तेजी से भौंरें कर रहे थे, जो श्रेष्ठतम गन्धर्वों की तरह गा रहे थे। कृष्ण ऐसे लग रहे थे मानो कोई राजसी हाथी अपनी संगिनियों के साथ जल में सुस्ताने के लिए प्रविष्ट हो रहा हो। निस्सन्देह भगवान् ने सारी लोक तथा वेद की मर्यादा का उसी तरह अतिक्रमण कर दिया जिस तरह एक शक्तिशाली हाथी धान के खेतों की रौंद ड़ालता है। |
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श्लोक 23: हे राजन्, जल में कृष्ण ने अपने ऊपर चारों ओर से हँसती एवं अपनी ओर प्रेमपूर्ण निहारती गोपियों के द्वारा जल उलीचा जाते देखा। जब देवतागण अपने विमानों से उनपर फूल वर्षा करके उनकी पूजा कर रहे थे तो आत्मतुष्ट भगवान् हाथियों के राजा की तरह क्रीड़ा करने का आनन्द लेने लगे। |
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श्लोक 24: तत्पश्चात् भगवान् ने यमुना के किनारे स्थित एक छोटे से उपवन में भ्रमण किया। यह उपवन स्थल तथा जल में उगने वाले फूलों की सुगन्ध लेकर बहने वाली मन्द वायु से भरपूर था। भौंरों तथा सुन्दर स्त्रियों के साथ भ्रमण कर रहे भगवान् कृष्ण ऐसे लग रहे थे मानों कोई मदमत्त हाथी अपनी हथिनियों के साथ जा रहा हो। |
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श्लोक 25: यद्यपि गोपियाँ सत्यकाम कृष्ण के प्रति दृढ़तापूर्वक अनुरक्त थीं किन्तु भीतर से भगवान् किसी संसारी काम-भावना से प्रभावित नहीं थे। फिर भी उन्होंने अपनी लीलाएँ सम्पन्न करने के लिए चाँदनी से खिली हुई उन समस्त शरतकालीन रातों का लाभ उठाया जो दिव्य विषयों के काव्यमय वर्णन के लिए प्रेरणा देती हैं। |
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श्लोक 26-27: परीक्षित महाराज ने कहा, “हे ब्राह्मण, ब्रह्माण्ड के स्वामी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अपने स्वांश सहित इस धरा में अधर्म का नाश करने तथा धर्म की पुनर्स्थापना करने हेतु अवतरित हुए हैं। दरअसल वे आदि वक्ता तथा नैतिक नियमों के पालनकर्ता एवं संरक्षक हैं। तो भला वे अन्य पुरुषों की स्त्रियों का स्पर्श करके उन नियमों का अतिक्रमण कैसे कर सकते थे? |
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श्लोक 28: हे श्रद्धावान व्रतधारी, कृपा करके हमें यह बतलाकर हमारा संशय दूर कीजिये कि पूर्णकाम यदुपति के मन में वह कौन सा अभिप्राय था जिससे उन्होंने इतने निन्दनीय ढंग से आचरण किया? |
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श्लोक 29: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : शक्तिशाली नियन्ताओं के पद पर किसी ऊपरी साहसपूर्ण उल्लंघन से जो हम उनमें देख पायें, कोई आँच नहीं आती क्योंकि वे उस अग्नि के समान होते हैं, जो हर वस्तु को निगल जाती है और अदूषित बनी रहती है। |
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श्लोक 30: जो महान् संयमकारी नहीं है, उसे शासन करने वाले महान् पुरुषों के आचरण की मन से भी कभी नकल नहीं करनी चाहिए। यदि कोई सामान्य व्यक्ति मूर्खतावश ऐसे आचरण की नकल करता है, तो वह उसी तरह विनष्ट हो जायेगा जिस तरह कि विष के सागर को पीने का प्रयास करने वाला व्यक्ति। यदि वह रुद्र नहीं है, नष्ट हो जायेगा। |
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श्लोक 31: भगवान् द्वारा शक्तिप्रदत्त दासों के वचन सदैव सत्य होते हैं और जब वे इन वचनों के अनुरूप कर्म करते हैं, तो वे आदर्श होते हैं। इसलिए जो बुद्धिमान है उस को चाहिए कि इनके आदेशों को पूरा करे। |
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श्लोक 32: हे प्रभु, जब मिथ्या अहंकार से रहित ये महान् व्यक्ति इस जगत में पवित्र भाव से कर्म करते हैं, तो उसमें उनका कोई स्वार्थ-भाव नहीं होता और जब वे ऊपरी तौर से पवित्रता के नियमों के विरुद्ध लगने वाले कर्म (अनर्थ) करते हैं, तो भी उन्हें पापों का फल नहीं भोगना पड़ता। |
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श्लोक 33: तो फिर समस्त सृजित प्राणियों पशुओं, मनुष्यों तथा देवताओं—के स्वामी भला उस शुभ तथा अशुभ से किसी प्रकार का सम्बन्ध कैसे रख सकते हैं जिससे उनके अधीनस्थ प्राणी प्रभावित होते हों? |
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श्लोक 34: जो भगवद्भक्त भगवान् के चरणकमलों की धूलि का सेवन करते हुए पूर्णतया तुष्ट हैं उन्हें भौतिक कर्म कभी नहीं बाँध पाते। न ही भौतिक कर्म उन बुद्धिमान मुनियों को बाँध पाते हैं जिन्होंने योगशक्ति के द्वारा अपने को समस्त कर्मफलों के बन्धन से मुक्त कर लिया है। तो फिर स्वयं भगवान् के बन्धन का प्रश्न कहाँ उठता है, जो स्वेच्छा से दिव्य रूप धारण करने वाले हैं? |
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श्लोक 35: जो गोपियों तथा उनके पतियों और वस्तुत: समस्त देह-धारी जीवों के भीतर साक्षी के रूप में रहता है, वही दिव्य लीलाओं का आनन्द लेने के लिए इस जगत में विविध रूप धारण करता है। |
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श्लोक 36: जब भगवान् अपने भक्तों पर कृपा प्रदर्शित करने के लिए मनुष्य जैसा शरीर धारण करते हैं, तो वे ऐसी क्रीड़ाएँ करते हैं जिनके विषय में सुनने वाले आकृष्ट होकर भगवत्परायण हो जाँय। |
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श्लोक 37: कृष्ण की मायाशक्ति से मोहित सारे ग्वालों ने सोचा कि उनकी पत्नियाँ घरों में उनके निकट ही रहती रही थीं। इस तरह उनमें कृष्ण के प्रति कोई ईर्ष्या भाव नहीं उत्पन्न हुआ। |
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श्लोक 38: जब ब्रह्मा की पूरी एक रात बीत गई तो कृष्ण ने गोपियों को अपने अपने घरों को लौट जाने की सलाह दी। यद्यपि वे ऐसा करना नहीं चाह रही थीं तो भी भगवान् की इन प्रेयसियों ने उनके आदेश का पालन किया। |
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श्लोक 39: जो कोई वृन्दावन की युवा-गोपिकाओं के साथ भगवान् की क्रीड़ाओं को श्रद्धापूर्वक सुनता है या उनका वर्णन करता है, वह भगवान् की शुद्ध भक्ति प्राप्त करेगा। इस तरह वह शीघ्र ही धीर बन जाएगा और हृदय रोग रूपी कामवासना को जीत लेगा। |
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