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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 35: कृष्ण के वनविहार के समय गोपियों द्वारा कृष्ण का गायन  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस अध्याय में गोपियों के गीत हैं, जिन्हें वे कृष्ण के प्रति अपना विरह-भाव व्यक्त करने के लिए तब गाती हैं जब दिन के समय कृष्ण जंगल चले जाते हैं। ज्यों ज्यों श्रीकृष्ण...
 
श्लोक 1:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब भी कृष्ण वन को जाते थे तो गोपियों के मन उन्हीं के पीछे भाग जाते थे और इस तरह युवतियाँ उनकी लीलाओं का गान करते हुए खिन्नतापूर्वक अपने दिन बिताती थीं।
 
श्लोक 2-3:  गोपियों ने कहा : जब मुकुन्द अपने होंठों पर रखी बाँसुरी के छेदों को अपनी सुकुमार अँगुलियों से बन्द करके उसे बजाते हैं, तो वे अपने बाएँ गाल को अपनी बाईं बाँह पर रखकर अपनी भौंहों को नचाने लगते हैं। उस समय आकाश में अपने पतियों अर्थात् सिद्धों समेत विचरण कर रही सिद्धपत्नियाँ चकित हो उठती हैं। जब ये स्त्रियाँ वंशी की ध्वनि सुनती हैं, तो उनके मन कामवासना से चलायमान हो उठते हैं और अपनी पीड़ा में उन्हें इसकी भी सुधि नहीं रह जाती कि उनके कमरबंध शिथिल हुए जा रहे हैं।
 
श्लोक 4-5:  हे बालाओ, दुखियों को आनन्द देने वाला यह नन्द का बेटा अपने वक्षस्थल पर अविचल दामिनी वहन करता है और इसकी हँसी रत्नजटित हार जैसी है। अब जरा कुछ विचित्र बात सुनो। जब वह अपनी बाँसुरी बजाता है, तो बहुत दूरी पर खड़े व्रज के बैल, हिरण तथा गौवें के झुंड के झुंड इस ध्वनि से मोहित हो जाते हैं। वे सब जुगाली करना बंद कर देते हैं और अपने कानों को खड़ा कर लेते हैं (चौकन्ने हो जाते हैं)। वे स्तम्भित होकर ऐसे लगते हैं मानो सो गये हों या चित्रों में बनी आकृतियाँ हों।
 
श्लोक 6-7:  हे प्रिय गोपी, कभी कभी कृष्ण अपने को पत्तियों, मोरपंखों तथा रंगीन खनिजों से सजाकर पहलवान का वेश बनाते हैं। तत्पश्चात् वे बलराम तथा ग्वालबालों के साथ बैठकर गौवों को बुलाने के लिए अपनी बाँसुरी बजाते हैं। उस समय नदियाँ बहना बन्द कर देती हैं, उनका जल उस आनन्द से स्तम्भित हो उठता है, जिसे वे उस वायु की उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा करते हुए अनुभव करती हैं, जो उनके लिए भगवान् के चरणकमलों की धूल लाएगा। किन्तु हमारी ही तरह नदियाँ अधिक पवित्र नहीं हैं, अत: वे प्रेमवश काँपते हुए बाँहों से उनकी प्रतीक्षा करती रहती हैं।
 
श्लोक 8-11:  कृष्ण अपने सखाओं के साथ जंगल में घूमते फिरते हैं। ये सखा उनके शानदार कार्यों का जोरशोर से यशगान करते हैं। इस तरह वे पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर की तरह अपने अक्षय ऐश्वर्य का प्रदर्शन करते प्रतीत होते हैं। जब गाएँ पर्वत की तलहटी में घूमती हैं और कृष्ण अपनी वंशी की तान से उन्हें बुलाते हैं, तो वृक्ष तथा जंगल की लताएँ, प्रत्युत्तर में, फूलों तथा फलों से इतनी लद जाती हैं कि वे अपने हृदयों के भीतर भगवान् विष्णु को प्रकट करती प्रतीत होती हैं। जब भार से उनकी शाखाएँ नीचे झुक जाती हैं, तो उनके तनों के तन्तु तथा लताएँ भगवत्प्रेम से रोम जैसी उठ खड़ी होती हैं और वृक्ष तथा लताएँ दोनों ही मधुर रस की वर्षा करने लगते हैं। कृष्ण द्वारा पहनी गयी माला के तुलसी के फूलों की मधु जैसी दिव्य गंध से उन्मत्त भौंरों के समूह उनके लिए उच्च स्वर से गुंजार करने लगते हैं और पुरुषों में सर्वाधिक सुन्दर वह कृष्ण अपने अधरों पर अपनी वंशी रखकर और उसे बजाकर उनके गीत की धन्यवाद-सहित प्रशंसा करते हैं। तब मनोहारी वंशी-गीत सारसों, हंसों तथा झील में रहने वाले अन्य पक्षियों के चित्त को चुरा लेता है। निस्सन्देह ये सभी अपनी आँखें बन्द किये और मौन साधे उनके पास जाते हैं और गहन ध्यान में उन पर अपनी चेतना को स्थिर करते हुए उनकी पूजा करते हैं।
 
श्लोक 12-13:  हे व्रज-देवियो, जब कृष्ण बलराम के साथ खेलखेल में अपने सिर पर फूलों की माला धारण करके पर्वत की ढालों पर विहार करते हैं, तो वे अपनी वंशी की गूँजती ध्वनि से सबों को आह्लादित कर देते हैं। इस तरह वे सम्पूर्ण विश्व को प्रमुदित करते हैं। उस समय महान् पुरुष के अप्रसन्न होने के भय से भयभीत होकर निकटवर्ती बादल उनके साथ होकर मंद मंद गर्जना करता है। यह बादल अपने प्रिय मित्र कृष्ण पर फूलों की वर्षा करता है और धूप से बचाने के लिए छाते की तरह छाया प्रदान करता है।
 
श्लोक 14-15:  हे सती यशोदा माता, गौवों के चराने की कला में निपुण आपके लाड़ले ने वंशी बजाने की कई शैलियाँ खोज निकाली हैं। जब वह अपने बिम्ब सदृश लाल होंठों पर अपनी वंशी रखता है और विविध तानों में स्वर निकालता है, तो इस ध्वनि को सुनकर ब्रह्मा, शिव, इन्द्र तथा अन्य प्रधान देवता मोहित हो जाते हैं। यद्यपि वे महान् विद्वान अधिकारी हैं तो भी वे उस संगीत का सार निश्चित नहीं कर पाते; इसलिए वे अपना सिर तथा मन से नतमस्तक हो जाते हैं।
 
श्लोक 16-17:  जब कृष्ण अपने कमल-दल जैसे पाँवों से व्रज में घूमते हैं, तो भूमि पर पताका, वज्र, कमल तथा अंकुश जैसे प्रतीकों के स्पष्ट चिन्ह बनते जाते हैं और वे पृथ्वी को गौवों के खुरों से अनुभव होने वाली पीड़ा से प्रशमित करते हैं। जब वे अपनी विख्यात बाँसुरी बजाते हैं, तो उनका शरीर हाथी की अदा में झूमता है। इस तरह हम गोपियाँ, जो कृष्ण की विनोदप्रिय चितवन के कारण कामदेव द्वारा चंचल हो उठती हैं, वृक्षों की तरह स्तब्ध खड़ी रह जाती हैं और हमें अपने बालों की लर तथा वस्त्रों के शिथिल पडऩे जाने की भी सुध नहीं रह जाती।
 
श्लोक 18-19:  अब कृष्ण कहीं पर अपनी मणियों की लड़ी में गौवों की गिनती करते हुए खड़े हैं। वे तुलसी के फूलों की माला पहने हैं जिसमें उनकी प्रिया की सुगन्ध बसती है और अपनी एक बाँह अपने प्रिय ग्वालमित्र के कन्धे पर रखे हुए हैं। ज्योंही कृष्ण अपनी बाँसुरी बजाकर गाते हैं, तो उस गीत से कृष्ण-हिरणों की पत्नियाँ आकृष्ट होती हैं और वे दिव्य गुणों के सागर कृष्ण तक पहुँचकर उनके पास बैठ जाती हैं। वे भी हम गोपियों की तरह पारिवारिक जीवन के सुख की सारी आशाएँ त्याग चुकी हैं।
 
श्लोक 20-21:  हे निष्पाप यशोदा, तुम्हारे लाड़ले नन्दनन्दन ने चमेली की माला से अपना विचित्र वेश सजा लिया है और इस समय वह यमुना के तट पर गौवों तथा ग्वालबालों के साथ अपने प्रिय संगियों का मनोरंजन कराते हुए खेल रहे हैं। मन्द वायु अपनी सुखद चन्दन-सुगंध से उनका आदर कर रही है और विविध उपदेवता चारों ओर बन्दीजनों के समान खड़े होकर अपना संगीत, गायन तथा श्रद्धा के उपहार भेंट कर रहे हैं।
 
श्लोक 22-23:  व्रज की गौवों के प्रति अत्यधिक स्नेह के कारण कृष्ण गोवर्धनधारी बने। दिन ढलने पर अपनी सारी गौवों को समेट कर वे अपनी बाँसुरी पर गीत की धुन बजाते हैं और उनके मार्ग के किनारे खड़े उच्च देवतागण उनके चरणकमलों की पूजा करते हैं तथा उनके साथ चल रहे ग्वालबाल उनके यश का गान करते हैं। उनकी माला गौवों के खुरों से उठी धूल से धूसरित है और थकान के कारण बढ़ी हुई उनकी सुन्दरता हरएक के नेत्रों के लिए आह्लादयुक्त उत्सव प्रस्तुत करने वाली है। अपने मित्रों की इच्छाएँ पूरी करने के लिए उत्सुक, कृष्ण माता यशोदा की कोख से उदित चन्द्रमा हैं।
 
श्लोक 24-25:  जब श्रीकृष्ण अपने शुभचिन्तक सखाओं को आदरपूर्वक शुभकामनाएँ देते हैं, तो उनकी आँखें थोड़ी-सी इस तरह घूमती हैं जैसे नशे में हों। वे फूलों की माला पहने हैं और उनके कोमल गालों की शोभा उनके सुनहरे कुण्डलों की चमक से तथा बदर बेर के रंग वाले उनके मुख की श्वेतता से बढ़ जाती है। रात्रि के स्वामी चन्द्रमा के सदृश अपने प्रसन्न मुख वाले यदुपति राजसी हाथी की अदा से चल रहे हैं। इस तरह वे व्रज की गौवों को दिन-भर की गर्मी से छुटकारा दिलाते हुए संध्या-समय घर लौटते हैं।
 
श्लोक 26:  श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्, इस तरह वृन्दावन की स्त्रियाँ दिन के समय कृष्ण की लीलाओं का निरन्तर गान करते हुए आनन्द लूटतीं और उन सबों के मन तथा हृदय उन्हीं में लीन रहकर अपार उत्सवभाव से भरे रहते।
 
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