श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 35: कृष्ण के वनविहार के समय गोपियों द्वारा कृष्ण का गायन  »  श्लोक 14-15
 
 
श्लोक  10.35.14-15 
विविधगोपचरणेषु विदग्धो
वेणुवाद्य उरुधा निजशिक्षा: ।
तव सुत: सति यदाधरबिम्बे
दत्तवेणुरनयत् स्वरजाती: ॥ १४ ॥
सवनशस्तदुपधार्य सुरेशा:
शक्रशर्वपरमेष्ठिपुरोगा: ।
कवय आनतकन्धरचित्ता:
कश्मलं ययुरनिश्चिततत्त्वा: ॥ १५ ॥
 
शब्दार्थ
विविध—अनेक; गोप—ग्वालों के; चरणेषु—कार्यों में; विदग्ध:—पटु; वेणु—वंशी के; वाद्ये—बजाने में; उरुधा—कई गुना; निज—अपनी; शिक्षा:—जिसकी शिक्षाएँ; तव—तुम्हारा; सुत:—बेटा; सति—हे पवित्र स्त्री (यशोदा); यदा—जब; अधर— होंठों पर; बिम्बे—बिम्ब फलों जैसे लाल; दत्त—रखी हुई; वेणु:—वंशी; अनयत्—ले आया; स्वर—संगीत ध्वनि की; जाती:—जातियाँ; सवनश:—उच्च, मध्यम तथा निम्न आरोहों से; तत्—उसे; उपधार्य—सुनकर; सुर-ईशा:—मुख्य देवता; शक्र—इन्द्र; शर्व—शिवजी; परमेष्ठि—तथा ब्रह्मा; पुर:-गा:—आदि; कवय:—विद्वान; आनत—झुका लिया; कन्धर—गर्दनें; चित्ता:—तथा मन; कश्मलम् ययु:—मोहित हो गये; अनिश्चित—निश्चय कर पाने में असमर्थ; तत्त्वा:—सार ।.
 
अनुवाद
 
 हे सती यशोदा माता, गौवों के चराने की कला में निपुण आपके लाड़ले ने वंशी बजाने की कई शैलियाँ खोज निकाली हैं। जब वह अपने बिम्ब सदृश लाल होंठों पर अपनी वंशी रखता है और विविध तानों में स्वर निकालता है, तो इस ध्वनि को सुनकर ब्रह्मा, शिव, इन्द्र तथा अन्य प्रधान देवता मोहित हो जाते हैं। यद्यपि वे महान् विद्वान अधिकारी हैं तो भी वे उस संगीत का सार निश्चित नहीं कर पाते; इसलिए वे अपना सिर तथा मन से नतमस्तक हो जाते हैं।
 
तात्पर्य
 तव सुत: सति पद इस बात का सूचक है कि यहाँ पर माता यशोदा भी भगवान् कृष्ण का गंभीरता से गुणगान करने वाली गोपियों में से थीं। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के अनुसार शक्र (इन्द्र) इत्यादि देवताओं में उपेन्द्र, अग्नि तथा यमराज सम्मिलित थे और शर्व (शिव) इत्यादि देवताओं में कात्यायनी, स्कन्द तथा गणेश थे। इसी तरह परमेष्ठि (ब्रह्मा) के साथ चारों कुमार तथा नारद थे। इस तरह ब्रह्माण्ड के सबसे बुद्धिमान व्यक्ति भी भगवान् के मोहक संगीत का सुचारु रूप से विश्लेषण कर पाने में असमर्थ थे।
 
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