कुन्ददामकृतकौतुकवेषो
गोपगोधनवृतो यमुनायाम् ।
नन्दसूनुरनघे तव वत्सो
नर्मद: प्रणयिणां विजहार ॥ २० ॥
मन्दवायुरुपवात्यनुकूलं
मानयन् मलयजस्पर्शेन ।
वन्दिनस्तमुपदेवगणा ये
वाद्यगीतबलिभि: परिवव्रु: ॥ २१ ॥
शब्दार्थ
कुन्द—चमेली के फूलों की; दाम—माला से; कृत—बनायी गई; कौतुक—क्रीड़ापूर्ण; वेष:—वेशभूषा; गोप—गोपबालों द्वारा; गोधन—तथा गायों द्वारा; वृत:—घिरा हुआ; यमुनायाम्—यमुना के तट पर; नन्द-सूनु:—नन्द महाराज का बेटा; अनघे—हे निष्पाप महिला; तव—तुम्हारा; वत्स:—लाड़ला बेटा; नर्म-द:—मनोरंजन कराने वाला; प्रणयिणाम्—अपने प्रिय संगियों के; विजहार—खेल चुका है; मन्द—धीमी; वायु:—वायु; उपवाति—बहती है; अनुकूलम्—अनुकूल; मानयन्—आदर दिखलाते हुए; मलय-ज—चन्दन (की सुगंध) के; स्पर्शेन—स्पर्श से; वन्दिन:—प्रशंसा करने वाले; तम्—उसको; उपदेव— लघु देवता की; गणा:—विभिन्न कोटियों के सदस्य; ये—जो; वाद्य—वाद्य यंत्रों वाले संगीत; गीत—गायन; बलिभि:—तथा उपहारों सहित; परिवव्रु:—घेर लिया है ।.
अनुवाद
हे निष्पाप यशोदा, तुम्हारे लाड़ले नन्दनन्दन ने चमेली की माला से अपना विचित्र वेश सजा लिया है और इस समय वह यमुना के तट पर गौवों तथा ग्वालबालों के साथ अपने प्रिय संगियों का मनोरंजन कराते हुए खेल रहे हैं। मन्द वायु अपनी सुखद चन्दन-सुगंध से उनका आदर कर रही है और विविध उपदेवता चारों ओर बन्दीजनों के समान खड़े होकर अपना संगीत, गायन तथा श्रद्धा के उपहार भेंट कर रहे हैं।
तात्पर्य
श्रील जीव गोस्वामी बतलाते हैं कि गोपियाँ पुन: व्रज की महारानी माता यशोदा के आँगन में आई हुई हैं। दिन-भर गौवें चराने तथा खेलने के बाद कृष्ण के वृन्दावन लौटने का वर्णन करके गोपियाँ यशोदा को प्रोत्साहित कर रही हैं।
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती की टीका है कि यहाँ पर जिन उपदेवों का उल्लेख है उनमें गन्धर्वगण सम्मिलित हैं, जो अपने दैवी गायन तथा नृत्य के लिए विख्यात हैं।
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