श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 35: कृष्ण के वनविहार के समय गोपियों द्वारा कृष्ण का गायन  »  श्लोक 4-5
 
 
श्लोक  10.35.4-5 
हन्त चित्रमबला: श‍ृणुतेदं
हारहास उरसि स्थिरविद्युत् ।
नन्दसूनुरयमार्तजनानां
नर्मदो यर्हि कूजितवेणु: ॥ ४ ॥
वृन्दशो व्रजवृषा मृगगावो
वेणुवाद्यहृतचेतस आरात् ।
दन्तदष्टकवला धृतकर्णा
निद्रिता लिखितचित्रमिवासन् ॥ ५ ॥
 
शब्दार्थ
हन्त—ओह; चित्रम्—आश्चर्य; अबला:—हे बालाओ; शृणुत—सुनो; इदम्—यह; हार—गले के हार सदृश (चमकीला); हास:—हँसी; उरसि—वक्षस्थल पर; स्थिर—अचल; विद्युत्—बिजली; नन्द-सूनु:—नन्द महाराज का पुत्र; अयम्—यह; आर्त—दुखी; जनानाम्—मनुष्यों के लिए; नर्म—प्रसन्नता का; द:—देने वाला; यर्हि—जब; कूजित—ध्वनित; वेणु:—वंशी; वृन्दश:—झुंडों में; व्रज—चरागाह में रखे गये; वृषा:—बैल; मृग—हिरण; गाव:—गाएँ; वेणु—बाँसुरी के; वाद्य—बजाने से; हृत—चुराये गये; चेतस:—मन; आरात्—दूरी पर; दन्त—अपने दाँतों से; दष्ट—काटा गया; कवला:—कौर; धृत—खड़ा किये हुए; कर्णा:—अपने कान; निद्रिता:—सुप्त; लिखित—अंकित; चित्रम्—चित्र; इव—सदृश; आसन्—थे ।.
 
अनुवाद
 
 हे बालाओ, दुखियों को आनन्द देने वाला यह नन्द का बेटा अपने वक्षस्थल पर अविचल दामिनी वहन करता है और इसकी हँसी रत्नजटित हार जैसी है। अब जरा कुछ विचित्र बात सुनो। जब वह अपनी बाँसुरी बजाता है, तो बहुत दूरी पर खड़े व्रज के बैल, हिरण तथा गौवें के झुंड के झुंड इस ध्वनि से मोहित हो जाते हैं। वे सब जुगाली करना बंद कर देते हैं और अपने कानों को खड़ा कर लेते हैं (चौकन्ने हो जाते हैं)। वे स्तम्भित होकर ऐसे लगते हैं मानो सो गये हों या चित्रों में बनी आकृतियाँ हों।
 
तात्पर्य
 स्थिरविद्युत् शब्द लक्ष्मीजी का द्योतक है क्योंकि वे भगवान् के वक्षस्थल पर निवास करती हैं। जब वृन्दावन के पशु बाँसुरी की ध्वनि सुनते हैं, तो आनन्द के मारे वे स्तम्भित हो जाते हैं और अपना चारा चबाना बन्द कर देते हैं और इसे वे निगल नहीं सकते। कृष्ण के विरह में गोपियाँ भगवान् के वंशीवादन के असाधारण प्रभाव पर आश्चर्य करती हैं।

श्रील श्रीधर स्वामी ने सामासिक पद हार-हास की व्याख्या जिसमें भगवान् कृष्ण की मुसकान की तुलना एक हार से की गई है, इस प्रकार की है, “वह व्यक्ति जिसकी हँसी रत्नजटित हार के समान स्पष्ट चमकने वाली है” या कि “वह जिसकी हँसी उसके रत्नजटित हारों से प्रतिबिम्बित होती है” क्योंकि जब कृष्ण वंशी बजाते हैं, तो वे अपना सिर नीचे झुकाकर मन्द-मन्द हँसते हैं। इस शब्द का यह भी अर्थ हो सकता है—“वह जिसकी हँसी अपने तेज को, रत्नजटित हार की तरह, उसके वक्षस्थल पर डाल रही है” अथवा “वह जिसका हार उसकी हँसी के समान चमकीला है।”

 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥