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अध्याय 37: केशी तथा व्योम असुरों का वध
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संक्षेप विवरण: इस अध्याय में घोड़े के रूप में केशी असुर के वध, नारदमुनि द्वारा भगवान् कृष्ण की भावी लीलाओं का महिमा-गायन तथा कृष्ण द्वारा व्योमासुर-वध का वर्णन हुआ है।
कंस के... |
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श्लोक 1-2: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : कंस द्वारा भेजा गया केशी असुर व्रज में विशाल घोड़े के रूप में प्रकट हुआ। मन जैसे तेज वेग से दौड़ते हुए वह अपने खुरों से पृथ्वी को विदीर्ण करने लगा। उसकी गर्दन के बालों से सारे आकाश के बादल तथा देवताओं के विमान तितर-बितर हो गये। अपनी भारी हिनहिनाहट से उसने वहाँ पर उपस्थित सबों को भयभीत बना दिया। जब भगवान् ने देखा कि यह असुर किस तरह अपनी भयानक हिनहिनाहट से पूरे गोकुल गाँव को डरा रहा है और अपनी पूँछ से बादलों को हिलाये दे रहा है, तो वे केशी से सामना करने आगे आये। युद्ध के लिए तो केशी कृष्ण को ढूँढ़ ही रहा था अत: जब भगवान् उसके समक्ष खड़े हो गये और उन्होंने उसे पास आने के लिए ललकारा तो उस घोड़े ने सिंह जैसी गर्जना द्वारा उसका उत्तर दिया। |
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श्लोक 3: भगवान् को अपने सामने खड़ा देखकर केशी अत्यन्त क्रुद्ध होकर अपना मुह बाये उनकी ओर दौड़ा मानो वह आकाश को निगल जायेगा। प्रचण्ड वेग से दौड़ते हुए उस अजेय तथा दुर्धर्ष घोड़ा-असुर ने अपने अगले दो पाँवों से कमलनयन भगवान् पर प्रहार करने का प्रयत्न किया। |
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श्लोक 4: किन्तु दिव्य भगवान् ने केशी के प्रहार से अपने को बचा लिया और तब क्रुद्ध होकर अपनी भुजाओं से असुर के पैरों को पकडक़र उसे आकाश में चारों ओर घुमाया और एक सौ धनुष दूरी पर घृणापूर्वक उसी तरह फेंक दिया जिस प्रकार गरुड़ किसी सर्प को फेंक दे। तब भगवान् कृष्ण वहीं खड़े हो गये। |
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श्लोक 5: पुन: चेतना लौट आने पर केशी क्रोधपूर्वक उठा। उसने अपना मुख पूरा खोल दिया और वह पुन: कृष्ण पर आक्रमण करने दौड़ा। किन्तु कृष्ण हँस दिये और अपनी बाईं भुजा उस घोड़े के मुँह में उसी सुगमता से डाल दी जिस तरह कोई साँप भूमि में बने छेद में घुसा जाता है। |
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श्लोक 6: भगवान् के बाहु का स्पर्श होते ही केशी के सारे दाँत गिर पड़े क्योंकि उनका बाहु उस असुर को पिघले लोहे के समान गर्म लग रहा था। तत्पश्चात् केशी के शरीर में भगवान् का बाहु अत्यधिक फैल गया जिस तरह उपेक्षा करने से जलोदर रोग बढ़ जाता है। |
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श्लोक 7: ज्योंही कृष्ण की फैलती भुजा ने केशी के श्वास को पूरी तरह अवरुद्ध कर दिया, वह अपने पैर पटकने लगा, उसका शरीर पसीने से लथपथ हो गया और उसकी आँखें उलट गईं। तब उस असुर ने मल त्याग दिया और भूमि पर गिर कर निष्प्राण हो गया। |
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श्लोक 8: महाबाहु कृष्ण ने अपनी बाँह केशी के उस शरीर से निकाल ली जो अब एक लम्बी ककड़ी जैसा प्रतीत हो रहा था। अपने शत्रु को बिना प्रयास के ही मारने के बाद किसी प्रकार का गर्व दिखलाये बिना भगवान् ने ऊपर से फूलों की वर्षा के रूप में की गई देवताओं की पूजा स्वीकार की। |
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श्लोक 9: हे राजन्, तत्पश्चात् देवर्षि नारद भगवान् कृष्ण के पास एकान्त स्थान में गये। इन महाभागवत ने बिना किसी प्रयास के लीला करने वाले भगवान् से इस प्रकार कहा। |
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श्लोक 10-11: [नारदमुनि ने कहा]: हे कृष्ण, हे कृष्ण, हे अनन्त प्रभु, हे समस्त योगशक्तियों के स्रोत, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, हे समस्त जीवों के आश्रय तथा यदुश्रेष्ठ वासुदेव, हे प्रभु, आप समस्त जीवों के परमात्मा हैं और हृदय की गुफा में उसी तरह अदृश्य होकर बैठे हुए हैं जिस तरह सुलगती हुई लकड़ी के भीतर अग्नि सुप्त रहती है। आप सबों के भीतर साक्षी स्वरूप, परम पुरुष तथा सर्वनियन्ता देव हैं। |
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श्लोक 12: आप समस्त जीवों के आश्रय हैं और परमनियन्ता होने के कारण अपनी इच्छाशक्ति से अपनी सारी इच्छाएँ पूरी करते हैं। अपनी निजी सृजन-शक्ति से आपने प्रारम्भ में प्रकृति के आदि गुणों को प्रकट किया और आप उन्हीं के माध्यम से इस ब्रह्माण्ड का सृजन, पालन तथा विनाश करते हैं। |
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श्लोक 13: आप ही वह स्रष्टा हैं, जो अपने को राजा मानने वाले दैत्यों, प्रमथों तथा राक्षसों का विनाश करने के लिए तथा सन्त पुरुषों की रक्षा करने के लिए अब इस धरा पर अवतीर्ण हुए हैं। |
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श्लोक 14: यह घोड़े की आकृति वाला असुर इतना आतंक मचाये हुए था कि उसकी हिनहिनाहट से देवताओं ने भयभीत होकर अपने स्वर्ग के राज्य को छोड़ दिया था। किन्तु हमारे सौभाग्य से आपने खेल खेल में ही उसे मार डाला है। |
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श्लोक 15-20: हे सर्वशक्तिमान विभो, दो ही दिनों में मैं आपके हाथों चाणूर, मुष्टिक तथा अन्य पहलवानों के साथ साथ कुवलयापीड तथा राजा कंस की भी मृत्यु होते देखूँगा। इसके बाद मैं कालयवन, मुर, नरक तथा शंख असुर को आपके द्वारा मारा जाते देखूँगा। मैं आपको पारिजात पुष्प चुराते और इन्द्र को पराजित करते देखूँगा। तत्पश्चात् अपने पराक्रम से मूल्य चुकाते हुए वीर राजाओं की अनेक कन्याओं के साथ आपको विवाह करते देखूँगा। तब हे ब्रह्माण्डपति, आप द्वारका में राजा नृग का शाप से उद्धार करेंगे और एक अन्य पत्नी के साथ साथ आप अपने लिए स्यमन्तक मणि भी लेंगे। आप ब्राह्मण के मृत पुत्र को अपने दास यमराज के धाम से वापस लायेंगे और उसके बाद आप पौण्ड्रक का वध करेंगे तथा काशी नगरी को जला देंगे और राजसूय यज्ञ के समय दन्तवक्त्र तथा चेदिराज का संहार करेंगे। मैं इन सब वीरतापूर्ण लीलाओं को तो देखूँगा ही, साथ ही द्वारका में अपने वास-काल में आप जो अन्य अनेक लीलाएँ करेंगे उन्हें भी देखूँगा। ये सारी लीलाएँ दिव्य कवियों के गीतों में इस धरा पर गाई जाती हैं। |
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श्लोक 21: तत्पश्चात् मैं आपको साक्षात् काल के रूप में प्रकट होते, अर्जुन के सारथी के रूप में सेवा करते तथा धरती का भार उतारने के लिए सैनिकों की समस्त सेनाओं का विनाश करते देखूँगा। |
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श्लोक 22: हे भगवान् हमें अपनी शरण में आने दें। आप शुद्ध आध्यात्मिक भिज्ञता से परिपूर्ण हैं और अपने मूल स्वरूप में सदैव स्थित रहते हैं। चूँकि आपकी इच्छा को कभी नकारा नहीं जा सकता, आपने पहले ही यथासम्भव इच्छित वस्तुएँ प्राप्त कर ली हैं और अपनी आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा आप माया के गुण प्रवाह से सतत पृथक् रहते हैं। |
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श्लोक 23: हे आत्म-निर्भर परमनियन्ता, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आपने अपनी शक्ति से इस ब्रह्माण्ड की असीम विशिष्ट व्यवस्था की रचना की है। अब आप यदुओं, वृष्णियों तथा सात्वतों के बीच महानतम वीर के रूप में प्रकट हुए हैं और आपने मानवीय युद्ध में भाग लेने का निर्णय किया है। |
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श्लोक 24: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार यदुवंश के प्रधान भगवान् कृष्ण को सम्बोधित करने के बाद नारद ने झुककर सादर प्रणाम किया। तत्पश्चात् उस मुनियों में महान् तथा भक्तों में विख्यात नारद ने भगवान् से विदा ली और उनका साक्षात् दर्शन करने से उत्पन्न परम हर्ष का अनुभव करते हुए चले गये। |
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श्लोक 25: युद्ध में असुर केशी को मार डालने के बाद भगवान् कृष्ण अपने प्रमुदित ग्वालमित्रों के साथ गौवों तथा अन्य पशुओं को चराते रहे। इस तरह उन्होंने वृन्दावन के समस्त वासियों को हर्ष-उल्लास पहुँचाया। |
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श्लोक 26: एक दिन पर्वत की ढलानों पर अपने पशु चराते हुए ग्वालबालों ने आपस में प्रतिद्वन्द्वी चोरों तथा मवेशि-पालकों (गड़ेरियों) का अभिनय करते हुए लुकाछिपी का खेल खेला। |
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श्लोक 27: हे राजन्, उस खेल में कुछ ग्वाले चोर बने, कुछ गडरिये तथा अन्य भेड़ बने। वे किसी संकट के भय के बिना सुखचैन से अपना खेल खेल रहे थे। |
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श्लोक 28: तब व्योम नामक एक शक्तिशाली जादूगर, जो असुर मय का पुत्र था, एक ग्वालबाल के वेश में वहाँ प्रकट हुआ। वह चोर के रूप में खेल में सम्मिलित होने का बहाना करते हुए, भेड़ बनने वाले अधिकांश ग्वालबालों को चुराने के लिए आगे बढ़ा। |
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श्लोक 29: उस महा असुर ने धीरे धीरे अधिकाधिक ग्वालों का अपहरण कर लिया और उन्हें एक पर्वत-गुफा में ले जाकर फेंक दिया तथा उसके द्वार को एक बड़े पत्थर से बन्द कर दिया। अन्त में केवल चार-पाँच बालक बचे जो खेल में भेड़ बने थे। |
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श्लोक 30: समस्त सन्त भक्तों को शरण देने वाले भगवान् कृष्ण अच्छी तरह जान गये कि व्योमासुर कर क्या रहा है। जिस तरह कोई सिंह भेडिय़े को दबोच लेता है उसी तरह कृष्ण ने उस असुर को जब वह अन्य ग्वालबालों को लिये जा रहा था बलपूर्वक धर दबोचा। |
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श्लोक 31: वह असुर अपने मूल रूप में परिणत होकर विशाल पर्वत के समान बड़ा तथा बली बन गया। किन्तु वह कठोर प्रयास के बावजूद अपने को छुड़ा न पाया क्योंकि भगवान् की मजबूत पकड़ में होने से वह अपनी शक्ति खो चुका था। |
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श्लोक 32: भगवान् अच्युत ने व्योमासुर को अपनी बाँहों के बीच में जकड़ कर पृथ्वी पर पदक दिया। तब स्वर्ग से देवताओं के देखते देखते कृष्ण ने उसे उसी तरह मार डाला जिस तरह कोई बलि पशु का वध करता है। |
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श्लोक 33: तत्पश्चात् कृष्ण ने गुफा के दरवाजे को अवरुद्ध करने वाले शिलाखण्ड को चूर चूर कर दिया और बन्दी बनाये गये ग्वालबालों को वे सुरक्षित स्थान पर ले आये। इसके बाद देवताओं तथा ग्वालों द्वारा उनका यशोगान होने लगा और वे अपने ग्वाल-ग्राम, गोकुल, लौट गए। |
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