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अध्याय 38: वृन्दावन में अक्रूर का आगमन |
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संक्षेप विवरण: इस अध्याय में अक्रूर की मथुरा से वृन्दावन की यात्रा, उनके द्वारा मार्ग में कृष्ण तथा बलराम का ध्यान करने और उनके आगमन पर दोनों भाइयों द्वारा सम्मान प्रदर्शित... |
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श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : महामति अक्रूर ने वह रात मथुरा में बिताई और तब अपने रथ पर सवार होकर नन्द महाराज के ग्वाल-ग्राम के लिए रवाना हुए। |
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श्लोक 2: मार्ग में यात्रा करते हुए महात्मा अक्रूर को कमल-नेत्र भगवान् के प्रति अपार भक्ति का अनुभव हुआ अत: वे इस प्रकार सोचने लगे। |
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श्लोक 3: [श्री अक्रूर ने सोचा]: मैंने ऐसे कौन-से शुभ कर्म किये हैं, ऐसी कौन-सी कठिन तपस्या की है, ऐसी कौन-सी पूजा की है या ऐसा कौन-सा दान दिया है, जिससे आज मैं भगवान् केशव का दर्शन करूँगा? |
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श्लोक 4: चूँकि मैं विषय-भोगों में लीन रहने वाला भौतिकतावादी व्यक्ति हूँ अत: अपने लिए उत्तम श्लोक में स्तुति किए जाने वाले भगवान् का दर्शन करने का यह अवसर प्राप्त कर पाना मैं उसी तरह कठिन समझता हूँ जिस तरह शूद्र के रूप में जन्मे व्यक्ति के लिए वैदिक मंत्रों के उच्चारण करने की अनुमति प्राप्त करना होता है। |
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श्लोक 5: किन्तु बहुत हुआ, छोड़ो इन विचारों को, आखिर मुझ जैसे पतितात्मा को भी अच्युत भगवान् को देखने का अवसर प्राप्त हो सकता है क्योंकि काल रूपी नदी के प्रवाह में बह रहे बद्ध-आत्माओं में से कोई एक आत्मा तो कभी कभी किनारे तक पहुँच ही सकता है। |
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श्लोक 6: आज मेरे समस्त पापकर्मों का उन्मूलन हो चुका है और मेरा जन्म सफल हो गया है क्योंकि मैं भगवान् के उन चरणकमलों को नमस्कार करूँगा जिनका ध्यान बड़े बड़े योगी करते हैं। |
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श्लोक 7: निस्सन्देह, आज कंस ने मुझे उन भगवान् हरि के चरणकमलों का दर्शन करने के लिए भेजकर मेरे ऊपर महती कृपा की है, जिन्होंने अब इस संसार में अवतार लिया है। भूतकाल में उनके चरण-नखों के तेज से ही इस भौतिक संसार के दुर्लंघ्य अंधकार को अनेक आत्माओं ने पार करके मुक्ति प्राप्त की है। |
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श्लोक 8: उन्हीं चरणकमलों की ब्रह्मा, शिव तथा अन्य सारे देवता, लक्ष्मीजी तथा बड़े बड़े मुनि और वैष्णव पूजा करते हैं। उन्हीं चरणकमलों से भगवान् अपने संगियों सहित गौवें चराते समय जंगल में विचरण करते हैं और वे ही चरण गोपियों के स्तनों पर लगे कुंकुम से सने रहते हैं। |
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श्लोक 9: अवश्य ही मैं भगवान् मुकुन्द के मुख को देखूँगा क्योंकि अब हिरन मेरी दाईं ओर से निकल रहे हैं। वह मुख घुँघराले बालों से घिरा है और उनके आकर्षक गालों तथा नाक, उनकी मन्द हासयुक्त चितवन तथा लाल कमल जैसी आँखों से शोभायमान है। |
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श्लोक 10: मुझे समस्त सौन्दर्य के आगार उन भगवान् विष्णु के दर्शन होंगे जिन्होंने पृथ्वी का भार उतारने के लिए स्वेच्छा से मनुष्य जैसा स्वरूप धारण किया है। इस तरह इसमें कोई सन्देह नहीं कि मेरी आँखों को उनके अस्तित्व का फल प्राप्त हो जायेगा। |
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श्लोक 11: वे भौतिक कार्य-कारण के साक्षी हैं फिर भी वे उनकी झूठी पहचान से अपने को सदैव पृथक् रखते हैं। वे अपनी अन्तरंगा शक्ति के द्वारा पृथकत्व तथा भ्रम के अंधकार को दूर करते हैं। जब वे अपनी भौतिक सृजन-शक्ति पर दृष्टि डालते हैं, तो इस जगत के जीव प्रकट होते हैं और ये जीव उन्हें अपनी प्राण-वायु, इन्द्रियों तथा बुद्धि कार्यों में अप्रत्यक्ष रूप से अनुभव करते हैं। |
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श्लोक 12: भगवान् के गुणों, कर्मों तथा अवतारों से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं तथा उत्पन्न समस्त सौभाग्य एवं इन तीनों का वर्णन करने वाले शब्द संसार को जीवनदान देते हैं, उसे सुशोभित बनाते हैं और शुद्ध करते हैं। दूसरी ओर, उनकी महिमा से विहीन शब्द शव की सजावट करने जैसे होते हैं। |
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श्लोक 13: वे ही भगवान् सात्वत वंश में प्रमुख देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अवतरित हुए हैं, जो उनके द्वारा निर्मित्त धर्म के नियमों को धारण करने वाले हैं। वे वृन्दावन में रहते हुए अपने यश का विस्तार करते हैं जिसकी महिमा देवतागण गाकर करते हैं और जो सबों को मंगल प्रदान करने वाला है। |
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श्लोक 14: आज मैं उन्हें अवश्य देखूँगा, जो कि महात्माओं के गन्तव्य तथा आध्यात्मिक गुरु हैं। सभी नेत्रवानों को उनके दर्शन से हर्ष होता है क्योंकि वे ब्रह्माण्ड के असली सौन्दर्य हैं। निस्सन्देह उनका साकार रूप लक्ष्मीजी द्वारा अभीप्सित आश्रय है। अब मेरे जीवन के समस्त प्रभात शुभ बन चुके हैं। |
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श्लोक 15: तब मैं तुरन्त अपने रथ से नीचे उतर आऊँगा और भगवान् कृष्ण तथा भगवान् बलराम दोनों के चरणकमलों को नमस्कार करूँगा। उनके पैर वही हैं, जिन्हें आत्मसाक्षात्कार के लिए प्रयत्नशील बड़े बड़े योगी अपने मन के भीतर धारण करते हैं। मैं दोनों के बालमित्रों तथा वृन्दावन के अन्य समस्त वासियों को भी अपना नमस्कार निवेदित करूँगा। |
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श्लोक 16: और जब मैं उनके चरणों पर गिर पडूँगा तो सर्वशक्तिमान प्रभु मेरे सिर पर अपना करकमल रख देंगे। जो लोग काल रूपी शक्तिशाली सर्प से अत्यन्त विचलित होकर उनकी शरण में जाते हैं, यह हाथ उनके सारे भय को दूर कर देता है। |
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श्लोक 17: उस कमल सदृश हाथ में दान देकर पुरन्दर तथा बलि ने स्वर्ग के राजा इन्द्र के पद को प्राप्त किया और रासनृत्य की आनन्द लीलाओं के समय जब भगवान् ने गोपियों के पसीने को पोंछकर उनकी थकान दूर की तो उनके मुखस्पर्श ने उस हाथ को मधुर फूल की तरह सुगन्धित बना दिया। |
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श्लोक 18: यद्यपि कंस ने मुझे यहाँ अपना दूत बनाकर भेजा है किन्तु अच्युत भगवान् मुझे अपना शत्रु नहीं मानेंगे। आखिर, सर्वज्ञ प्रभु इस भौतिक शरीर रूपी क्षेत्र के वास्तविक ज्ञाता हैं (क्षेत्रज्ञ) और वे अपनी पूर्ण दृष्टि से बद्धजीवों के हृदय के सारे प्रयासों को अन्दर और बाहर से देखते हैं। |
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श्लोक 19: इस तरह जब मैं हाथ जोडक़र उनके पैरों पर प्रणाम करने के लिए गिरकर पड़ा रहूँगा वे अपनी हँसीयुक्त स्नेहमयी चितवन मुझ पर डालेंगे। तब मेरा सारा कल्मष छू-मन्तर हो जायेगा। तब मेरे सारे संशय दूर हो जायेंगे और मैं गहन आनन्द का अनुभव करूँगा। |
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श्लोक 20: मुझे अपने घनिष्ठ मित्र तथा सम्बन्धी के रूप में पहचान कर कृष्ण अपनी विशाल भुजाओं से मुझे अपने गले लगा लेंगे जिससे उसी क्षण मेरा शरीर पवित्र हो जायेगा और सकाम कर्मों से जनित मेरे भौतिक बन्धन शून्य हो जायेंगे। |
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श्लोक 21: सर्व-सुविख्यात कृष्ण द्वारा गले लगाये जाने के बाद मैं उनके समक्ष विनम्र भाव से सिर झुकाकर तथा हाथ जोडक़र खड़ा रहूँगा और वे मुझसे कहेंगे, “मेरे प्रिय अक्रूर,” उसी क्षण मेरे जीवन का उद्देश्य सफल हो जायेगा। दरअसल जिस व्यक्ति को भगवान् मान्यता नहीं देते उसका जीवन दयनीय है। |
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श्लोक 22: भगवान् का न तो कोई अप्रिय है, न सर्वश्रेष्ठ मित्र है, न ही वे किसी को अवांछनीय, घृणित या उपेक्षणीय मानते हैं। साथ ही साथ अपने भक्तों से, जीस भाव से पूजा करते हैं उसी तरह प्रेम का आदान-प्रदान करते हैं जिस तरह कल्प-वृक्ष अपने पास आने वालों की इच्छाएँ पूरी करते हैं। |
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श्लोक 23: और जब मैं अपना सिर झुकाये खड़ा होऊँगा तब कृष्ण के बड़े भाई, यदुश्रेष्ठ बलराम मेरे जुड़े हुए हाथों को थाम लेंगे और फिर मेरा आलिंगन करके वे मुझे अपने घर ले जायेंगे। वहाँ वे सभी प्रकार की अनुष्ठान-सामग्री से मेरा सत्कार करेंगे और मुझसे पूछेंगे कि कंस उनके परिवार वालों के साथ कैसा व्यवहार कर रहा है। |
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श्लोक 24: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजन्, मार्ग पर जाते हुए श्वफल्कपुत्र (अक्रूर) कृष्ण के विषय में इस तरह गम्भीरतापूर्वक ध्यान करते करते जब गोकुल पहुँचे तो सूर्यअस्त होने को था। |
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श्लोक 25: चरागाह में अक्रूर ने उन पैरों के चिन्ह देखे जिनकी शुद्ध धूल को समस्त ब्रह्माण्डों के लोकपाल अपने मुकुटों में धारण करते हैं। भगवान् के वे चरणचिन्ह जो कमल, वांकुर तथा अंकुश जैसे चिन्हों से पहचाने जा सकते थे, पृथ्वी की शोभा को बढ़ा रहे थे। |
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श्लोक 26: भगवान् के चरणचिन्हों को देखने से उत्पन्न आनन्द से अधिकाधिक विह्वल होने से शुद्ध प्रेम के कारण अक्रूर के शरीर के रोंगटे खड़े हो गये और आँखें आँसुओं से भर आईं। वे अपने रथ से नीचे कूद पड़े और उन चरणचिन्हों पर यह चीखकर लोटने लगे, “ओह, यह तो मेरे प्रभु के चरणों की धूल है।” |
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श्लोक 27: समस्त जीवधारियों का जीवन-लक्ष्य यही आनन्द है, जिसे अक्रूर ने कंस का आदेश पाकर अपना सारा गर्व, भय तथा शोक त्यागकर अनुभव किया तथा अपने आपको भगवान् कृष्ण का स्मरण दिलाने वाली वस्तुओं को देखने, सुनने एवं वर्णन करने में लीन कर दिया। |
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श्लोक 28-33: तत्पश्चात् अक्रूर ने व्रज-ग्राम में कृष्ण तथा बलराम को गौवें दुहने के लिए जाते देखा। कृष्ण पीले वस्त्र पहने थे और बलराम नीले वस्त्र पहने थे। उनकी आँखें शरदकालीन कमलों के समान थीं। इन दोनों बलशाली भुजाओं वाले, लक्ष्मी के आश्रयों में से एक का रंग गहरा नीला था और दूसरे का श्वेत था। ये दोनों ही समस्त व्यक्तियों में सर्वाधिक सुन्दर थे। जब वे युवक हाथियों की-सी चाल से अपनी दयामय मुस्कानों से निहारते चलते तो ये दोनों महापुरुष अपने पदचिन्हों से चरागाह को सुशोभित बनाते जाते। ये पदचिन्ह पताका, वज्र, अंकुश तथा कमल चिन्हों से युक्त थे। ये अत्यन्त उदार तथा आकर्षक लीलाओं वाले दोनों प्रभु मणिजटित हार तथा फूल-मालाएँ पहने थे, इनके अंग शुभ सुगन्धित द्रव्यों से लेपित थे। ये अभी अभी स्नान करके आये थे और निर्मल वस्त्र पहने हुए थे। इन आदि महापुरुषों तथा ब्रह्माण्डों के आदि कारणों ने पृथ्वी के कल्याण हेतु अब केशव तथा बलराम के रूप में अवतार लिया था। हे राजा परीक्षित, वे दोनों दो स्वर्ण-आभूषित पर्वतों के समान लग रहे थे जिनमें से एक पर्वत मरकत मणि का था और दूसरा चाँदी का था क्योंकि वे अपने तेज से सारी दिशाओं में आकाश के अंधकार को दूर कर रहे थे। |
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श्लोक 34: स्नेह से अभिभूत अक्रूर तुरन्त अपने रथ से नीचे कूदकर बलराम तथा कृष्ण के चरणों पर डंडे के समान गिर पड़े। |
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श्लोक 35: भगवान् के दर्शन की प्रसन्नता से अक्रूर की आँखों में आँसू आ गये और अंगों में आनन्द का उभाड़ हो आया। उन्हें ऐसी उत्कण्ठा हुई कि हे राजन्, वे अपने आपको वाणी द्वारा व्यक्त नहीं कर सके। |
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श्लोक 36: अक्रूर को पहचान कर भगवान् कृष्ण ने उन्हें रथ के चक्र से अंकित अपने हाथ से अपने निकट खींचा और तब उनका आलिंगन किया। कृष्ण को प्रसन्नता हुई क्योंकि वे अपने शरणागत भक्तों के प्रति सदैव स्नेहिल रहते हैं। |
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श्लोक 37-38: जब अक्रूर अपना सिर झुकाये खड़े थे तो भगवान् संकर्षण (बलराम) ने उनके जुड़े हुए हाथ पकड़ लिये और तब वे कृष्ण सहित उन्हें अपने घर ले गये। अक्रूर से यह पूछने के बाद कि उनकी यात्रा सुखद तो रही, बलराम ने उन्हें बैठने के लिए श्रेष्ठ आसन दिया, शास्त्रोचित विधि से उनके पाँव पखारे और आदरपूर्वक मधुमिश्रित दूध दिया। |
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श्लोक 39: सर्वशक्तिमान भगवान् बलराम ने अक्रूर को एक गाय भेंट की, उनकी थकान दूर करने के लिए उनके पाँव दबाये और तब परम आदर तथा श्रद्धा के साथ भाँति-भाँति के उत्तम स्वादों से युक्त और उचित विधि से पकाया भोजन खिलाया। |
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श्लोक 40: जब अक्रूर भरपेट खा चुके तो धार्मिक कर्तव्यों के परम ज्ञाता भगवान् बलराम ने उन्हें मुख को मीठा करने वाले सुगंधित द्रव्य दिये और साथ ही सुगन्धियाँ तथा फूल-मालाएँ भेंट कीं। इस प्रकार अक्रूर ने एक बार फिर परम आनन्द प्राप्त किया। |
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श्लोक 41: नन्द महाराज ने अक्रूर से पूछा: हे दशार्ह वंशज, उस निर्दयी कंस के जीवित होते हुए आप सभी किस तरह अपना पालन करते हैं? आप तो कसाई के संरक्षण में भेड़ जैसे हैं। |
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श्लोक 42: उस क्रूर स्वार्थी कंस ने अपनी बिलखती हुई दुखित बहन की उपस्थिति में ही उसके बच्चों को मार डाला। तो फिर हम तुमसे, जो कि उनकी प्रजा हो, कुशलता के विषय में पूछ ही क्या सकते हैं? |
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श्लोक 43: पूछताछ के इन सत्य तथा मधुर वचनों से नन्द महाराज द्वारा सम्मानित होकर अक्रूर अपनी यात्रा की थकान भूल गये। |
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