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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 40: अक्रूर द्वारा स्तुति  »  श्लोक 12
 
 
श्लोक  10.40.12 
तुभ्यं नमस्ते त्वविषक्तद‍ृष्टये
सर्वात्मने सर्वधियां च साक्षिणे ।
गुणप्रवाहोऽयमविद्यया कृत:
प्रवर्तते देवनृतिर्यगात्मसु ॥ १२ ॥
 
शब्दार्थ
तुभ्यम्—तुम्हें; नम:—नमस्कार; ते—तुम्हारा; तु—तथा; अविषक्त—पृथक्, विलग; दृष्टये—दृष्टि वाले; सर्व-आत्मने—सबों की आत्मा को; सर्व—हरएक की; धियाम्—चेतना के; —तथा; साक्षिणे—साक्षी को; गुण—गुणों की; प्रवाह:—धारा; अयम्—यह; अविद्यया—अज्ञान के कारण; कृत:—उत्पन्न; प्रवर्तते—चलता रहता है; देव—देवताओं के रूप में; नृ—मनुष्य; तिर्यक्—तथा पशु; आत्मसु—उनमें जिनका स्वरुप है ।.
 
अनुवाद
 
 मैं आपको नमस्कार करता हूँ, जो समस्त जीवों के परमात्मा रूप होकर निष्पक्ष दृष्टि से हर एक की चेतना के साक्षी हैं। अज्ञान से उत्पन्न आपके भौतिक गुणों का प्रवाह उन जीवों के बीच प्रबलता के साथ प्रवाहित होता है, जो देवताओं, मनुष्यों तथा पशुओं का रूप धारण करते हैं।
 
 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥