श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 41: कृष्ण तथा बलराम का मथुरा में प्रवेश  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस अध्याय में बतलाया गया है कि किस तरह भगवान् कृष्ण ने मथुरा नगरी में प्रवेश किया, धोबी को मारा और किस तरह एक जुलाहे तथा सुदामा नामक माली को वर दिए। यमुना के जल...
 
श्लोक 1:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अभी अक्रूर स्तुति कर ही रहे थे कि भगवान् कृष्ण ने अपना वह रूप जिसे उन्होंने जल के भीतर प्रकट किया था, उसी तरह छिपा लिया जिस तरह कोई नट अपना खेल समाप्त कर देता है।
 
श्लोक 2:  जब अक्रूर ने उस दृश्य को अन्तर्धान होते देखा तो वे जल के बाहर आ गये और उन्होंने जल्दी जल्दी अपने विविध अनुष्ठान-कर्म सम्पन्न किये। तत्पश्चात् वे विस्मित होकर अपने रथ पर लौट आये।
 
श्लोक 3:  भगवान् कृष्ण ने अक्रूर से पूछा: क्या आपने पृथ्वी पर, या आकाश में या जल में कोई अद्भुत वस्तु देखी है? आपकी सूरत से हमें लगता है कि आपने देखी है।
 
श्लोक 4:  श्री अक्रूर ने कहा : पृथ्वी, आकाश या जल में जो भी अद्भुत वस्तुएँ हैं, वे सभी आपमें विद्यमान हैं। चूँकि आप हर वस्तु से ओतप्रोत हैं अत: जब मैं आपका दर्शन कर रहा हूँ तो फिर वह कौन सी वस्तु है, जिसे मैंने नहीं देखा है?
 
श्लोक 5:  और अब जबकि हे परम सत्य, मैं आपको देख रहा हूँ जिनमें पृथ्वी, आकाश तथा जल की सारी अद्भुत वस्तुएँ निवास करती हैं, तो फिर भला मैं इस जगत में और कौन सी अद्भुत् वस्तुएँ देख सकता था?
 
श्लोक 6:  इन शब्दों के साथ गान्दिनीपुत्र अक्रूर ने रथ आगे हाँकना शुरू कर दिया। दिन ढलते ढलते वे भगवान् बलराम तथा भगवान् कृष्ण को लेकर मथुरा जा पहुँचे।
 
श्लोक 7:  हे राजन्, वे मार्ग में जहाँ जहाँ से गुजरते, गाँव के लोग पास आकर वसुदेव के इन दोनों पुत्रों को बड़े ही हर्ष से निहारते। वस्तुत: ग्रामीणजन उनसे अपनी दृष्टि हटा नहीं पाते थे।
 
श्लोक 8:  नन्द महाराज तथा वृन्दावन के अन्य वासी रथ से पहले ही मथुरा पहुँच गये थे और कृष्ण तथा बलराम की प्रतीक्षा करने के लिए नगर के बाहरी उद्यान में रुके हुए थे।
 
श्लोक 9:  नन्द तथा अन्य लोगों से मिलने के बाद ब्रह्माण्ड के नियन्ता भगवान् कृष्ण ने विनीत अक्रूर के हाथ को अपने हाथ में लेकर हँसते हुए इस प्रकार कहा।
 
श्लोक 10:  [भगवान् कृष्ण ने कहा] आप रथ लेकर हमसे पहले नगरी में प्रवेश करें। तत्पश्चात् आप अपने घर जाँय। हम यहाँ पर कुछ समय तक ठहर कर बाद में नगरी देखने जायेंगे।
 
श्लोक 11:  श्री अक्रूर ने कहा : हे प्रभु, मैं आप दोनों के बिना मथुरा में प्रवेश नहीं करूँगा। हे नाथ, मैं आपका भक्त हूँ अत: यह उचित नहीं होगा कि आप मेरा परित्याग कर दें क्योंकि आप अपने भक्तों के प्रति सदैव वत्सल रहते हैं।
 
श्लोक 12:  आइये, आप अपने बड़े भाई, ग्वालों तथा अपने संगियों समेत मेरे घर चलिये। हे मित्रश्रेष्ठ, हे दिव्य प्रभु, इस तरह कृपया मेरे घर को कृतार्थ कीजिये।
 
श्लोक 13:  मैं एक सामान्य गृहस्थ हूँ और विधिवत् यज्ञों का पालन करने वाला हूँ। अत: आप अपने चरणकमलों की धूलि से मेरे घर को पवित्र कीजिये। इस शुद्धि कर्म से मेरे पितर, यज्ञ-अग्नियाँ तथा सारे देवता तुष्ट हो जायेंगे।
 
श्लोक 14:  आपके चरणों को पखार कर यशस्वी बलि महाराज ने न केवल यश तथा अनुपम शक्ति प्राप्त की अपितु शुद्धभक्तों की अन्तिम गति भी प्राप्त की।
 
श्लोक 15:  आपके चरणों के पखारने से दिव्य होकर गंगा नदी के जल ने तीनों लोकों को पवित्र बना दिया है। शिवजी ने उसी जल को अपने शिर पर धारण किया और उसी जल की कृपा से राजा सगर के पुत्र स्वर्ग गये।
 
श्लोक 16:  हे देवों के देव, हे जगन्नाथ, हे आप जिनके यश को सुनना और गायन करना अत्यन्त पवित्र है! हे यदुश्रेष्ठ, हे पुण्यश्लोक, हे परम भगवान् नारायण, मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
 
श्लोक 17:  परमेश्वर ने कहा : मैं अपने बड़े भाई के साथ आपके घर आऊँगा किन्तु पहले मुझे यदु जाति के शत्रु को मारकर अपने मित्रों तथा शुभचिन्तकों को तुष्ट करना है।
 
श्लोक 18:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान् द्वारा ऐसे सम्बोधित किये जाने पर अक्रूर भारी मन से नगर में प्रविष्ट हुए। उन्होंने राजा कंस को अपने ध्येय की सफलता से सूचित किया और तब वे अपने घर चले गये।
 
श्लोक 19:  भगवान् कृष्ण मथुरा देखना चाहते थे अत: संध्या समय अपने साथ बलराम तथा ग्वालबालों को लेकर उन्होंने नगर में प्रवेश किया।
 
श्लोक 20-23:  भगवान् ने देखा कि मथुरा के ऊँचे ऊँचे दरवाजे तथा घरों के प्रवेशद्वार स्फटिक के बने हैं, इसके विशाल तोरण तथा मुख्य द्वार सोने के हैं, इसके अन्न गोदाम तथा अन्य भण्डार ताँबे तथा पीतल के बने हैं और इसकी परिखा (खाईं) अप्रवेश्य है। मनोहर उद्यान तथा उपवन इस शहर की शोभा बढ़ा रहे थे। मुख्य चौराहे सोने से बनाये गये थे और इसकी इमारतों के साथ निजी विश्राम-उद्यान थे, साथ ही व्यापारिकों के सभाभवन तथा अन्य अनेक इमारतें थीं। मथुरा उन मोर तथा पालतू कबूतरों की बोलियों से गूँज रहा था, जो जालीदार खिड़कियों के छेदों पर, रत्नजटित फर्शों पर तथा ख भेदार छज्जों और घरों के सामने के सज्जित धरनों पर बैठे थे। ये छज्जे तथा धरने वैदूर्य मणियों, हीरों, स्फटिकों, नीलमों, मूँगों, मोतियों तथा हरित मणियों से सजाये गये थे। समस्त राजमार्गों तथा व्यापारिक गलियों में जल का छिडक़ाव हुआ था। इसी तरह पार्श्वगलियों तथा चबूतरों को भी सींचा गया था। सर्वत्र फूल मालाएँ, नव अंकुरित जौ, लावा तथा अक्षत बिखेरे हुए थे। घरों के दरवाजों के प्रवेशमार्ग पर जल से भरे सुसज्जित घड़े शोभा दे रहे थे जिन्हें आम की पत्तियों से अलंकृत किया गया था और दही तथा चन्दनलेप से पोता गया था। उनके चारों ओर फूल की पंखडिय़ाँ तथा फीते लपेटे हुए थे। इन घड़ों के पास झंडियाँ, दीपों की पंक्ति, फूलों के गुच्छे, केलों के तथा सुपारी के वृक्षों के तने थे।
 
श्लोक 24:  मथुरा की स्त्रियाँ जल्दी-जल्दी एकत्र हुईं और ज्योंही वसुदेव के दोनों पुत्र अपने ग्वाल-बाल मित्रों से घिरे हुए राजमार्ग द्वारा नगर में प्रविष्ट हुए वे उन्हें देखने निकल आईं। हे राजन्, कुछ स्त्रियाँ उन्हें देखने की उत्सुकता से अपने घरों की छतों पर चढ़ गईं।
 
श्लोक 25:  कुछ स्त्रियों ने अपने वस्त्र तथा गहने उल्टे पहन लिये, कुछ अपना एक कुंडल या पायल पहनना भूल गईं और अन्यों ने केवल एक आँख में अंजन लगाया, दूसरी में लगा ही न पाईं।
 
श्लोक 26:  जो भोजन कर रही थीं उन्होंने भोजन करना छोड़ दिया, अन्य स्त्रियाँ अधनहाई या उबटन पूरी तरह लगाये बिना ही चली आईं। जो स्त्रियाँ सो रही थीं वे शोर सुनकर तुरन्त उठ गईं और माताओं ने दूध पीते बच्चों को अपनी गोदों से उतारकर अलग रख दिया।
 
श्लोक 27:  अपनी साहसिक लीलाओं का स्मरण करके मुसकाते हुए कमल-नेत्रों वाले भगवान् ने अपनी चितवनों से स्त्रियों के मनों को मोह लिया। वे शाही हाथी की तरह मतवाली चाल से अपने दिव्य शरीर से उन स्त्रियों के नेत्रों के लिए उत्सव उत्पन्न करते हुए चल रहे थे। उनका यह शरीर दिव्य देवी लक्ष्मी के लिए आनन्द का स्रोत है।
 
श्लोक 28:  मथुरा की स्त्रियों ने कृष्ण के विषय में बारम्बार सुन रखा था अत: उनका दर्शन पाते ही उनके हृदय द्रवित हो उठे। वे अपने को सम्मानित अनुभव कर रही थीं कि कृष्ण ने उन पर अपनी चितवन तथा हँसी रूपी अमृत का छिडक़ाव किया है। अपने नेत्रों के द्वारा उन्हें अपने हृदयों में ग्रहण करके उन सबों ने समस्त आनन्द की मूर्ति का आलिंगन किया और हे अरिन्दम! ज्योंही उन्हें रोमांच हो आया वे उनकी अनुपस्थिति से जन्य असीम कष्ट को भूल गईं।
 
श्लोक 29:  स्नेह से प्रफुल्लित कमल सदृश मुखों वाली स्त्रियों ने जो अपने महलों की छतों पर चढ़ी हुई थीं, भगवान् बलराम तथा भगवान् कृष्ण पर फूलों की वर्षा की।
 
श्लोक 30:  रास्ते के किनारे खड़े ब्राह्मणों ने दही, अक्षत (जौ), जल-भरे कलशों, फूल-मालाओं, सुगन्धित द्रव्यों यथा चन्दन के लेप तथा पूजा की अन्य वस्तुओं की भेंटों से दोनों भाइयों का सम्मान किया।
 
श्लोक 31:  मथुरा की स्त्रियाँ चिल्ला पड़ीं: अहा! समस्त मानव-जाति को अत्यन्त आनन्द प्रदान करने वाले कृष्ण तथा बलराम को निरन्तर देखते रहने के लिए गोपियों ने कौन-सी कठोर तपस्याएँ की होंगी?
 
श्लोक 32:  कपड़ा रँगने वाले एक धोबी को अपनी ओर आते देखकर कृष्ण ने उससे उत्तमोत्तम धुले वस्त्र माँगे।
 
श्लोक 33:  [भगवान् कृष्ण ने कहा]: कृपया हम दोनों को उपयुक्त वस्त्र दे दीजिये क्योंकि हम इनके योग्य हैं। यदि आप यह दान देंगे तो इसमें सन्देह नहीं कि आपको सबसे बड़ा लाभ प्राप्त होगा।
 
श्लोक 34:  सभी प्रकार से परिपूर्ण भगवान् द्वारा इस प्रकार याचना किये जाने पर राजा का वह घमंडी नौकर क्रुद्ध हो उठा और अपमान-भरे वचनों में बोला।
 
श्लोक 35:  [धोबी ने कहा]: अरे उद्दंड बालको! तुम पर्वतों तथा जंगलों में घूमने के आदी हो फिर भी तुम इस तरह के वस्त्रों को पहनने का साहस कर रहे हो। तुम जिन्हें माँग रहे हो वे राजा की सम्पत्ति हैं।
 
श्लोक 36:  मूर्खो, यहाँ से तुरन्त निकल जाओ। यदि तुम जीवित रहना चाहते हो तो इस तरह मत माँगो। जब कोई अत्यधिक उच्छृंखल हो जाता है, तो राजा के कर्मचारी उसे बन्दी बना लेते हैं और जान से मार डालते हैं। और उसकी सारी सम्पत्ति छीन लेते हैं।
 
श्लोक 37:  जब वह धोबी इस तरह बहकी बातें बोला तो देवकी-पुत्र क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने अपनी अँगुलियों के अगले भाग से ही उसके शरीर से उसका सिर अलग कर दिया।
 
श्लोक 38:  धोबी के नौकरों ने अपने अपने वस्त्रों के गट्ठर गिरा दिये और मार्ग से भागकर चारों ओर तितर-बितर हो गये। तब भगवान् कृष्ण ने उन वस्त्रों को ले लिया।
 
श्लोक 39:  कृष्ण तथा बलराम ने अपनी मनपसंद के वस्त्रों की जोड़ी पहन ली और तब कृष्ण ने शेष वस्त्रों को ग्वालबालों में वितरित करते हुए कुछ को भूमि पर बिखेर दिया।
 
श्लोक 40:  तत्पश्चात् एक बुनकर आया और दोनों विभूतियों के प्रति स्नेह से वशीभूत होकर विविध रंगों वाले वस्त्र-आभूषणों से उनकी पोशाकें सजा दीं।
 
श्लोक 41:  कृष्ण तथा बलराम अपनी अपनी अद्भुत रीति से सजाई गई विशिष्ट पोशाक में शोभायमान दिखने लगे। वे उत्सव के समय सजाये गये श्वेत तथा श्याम हाथी के बच्चों की जोड़ी के समान लग रहे थे।
 
श्लोक 42:  उस बुनकर से प्रसन्न होकर भगवान् कृष्ण ने उसे आशीर्वाद दिया कि वह मृत्यु के बाद भगवान् जैसा स्वरूप प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त करे और जब तक इस लोक में रहे तब तक वह परम ऐश्वर्य, शारीरिक बल, प्रभाव, स्मृति तथा एन्द्रिय शक्ति का भोग करे।
 
श्लोक 43:  तत्पश्चात् दोनों भाई सुदामा माली के घर गये। जब सुदामा ने उन्हें देखा तो वह तुरन्त खड़ा हो गया और भूमि पर मस्तक नवाकर उसने उन्हें प्रणाम किया।
 
श्लोक 44:  उन्हें आसन प्रदान करके तथा उनके पाँव परवारकर सुदामा ने उनकी तथा उनके साथियों की अर्घ्य, माला, पान, चन्दन-लेप तथा अन्य उपहारों के साथ पूजा की।
 
श्लोक 45:  [सुदामा ने कहा]: हे प्रभु, अब मेरा जन्म पवित्र हो गया और मेरा परिवार निष्कलुष हो गया। चूँकि अब आप दोनों मेरे यहाँ आये हैं अत: मेरे पितर, देवता तथा ऋषिगण सभी मुझसे निश्चय ही संतुष्ट हुये हैं।
 
श्लोक 46:  आप दोनों भगवान् इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के परम कारण हैं। इस जगत को भरण-पोषण तथा समृद्धि प्रदान करने के लिए आप अपने अंशों समेत अवतरित हुए हैं।
 
श्लोक 47:  चूँकि आप शुभचिन्तक मित्र तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के परमात्मा हैं अत: आप सबों को निष्पक्ष दृष्टि से देखते हैं। अत: यद्यपि आप अपने भक्तों से प्रेमपूर्ण पूजा का आदान-प्रदान करते हैं फिर भी आप सभी प्राणियों पर सदा समभाव रखते हैं।
 
श्लोक 48:  कृपया इस अपने दास को आप जो चाहते हों वह करने का आदेश दें। आपके द्वारा किसी सेवा में लगाया जाना किसी के लिए भी महान् वरदान है।
 
श्लोक 49:  [शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा]: हे राजाओं में श्रेष्ठ, ये शब्द कहकर सुदामा ने यह जान लिया कि कृष्ण तथा बलराम क्या चाह रहे थे। इस तरह उसने अतीव प्रसन्नतापूर्वक उन्हें ताजे सुगन्धित फूलों की मालाएँ अर्पित कीं।
 
श्लोक 50:  इन मालाओं से सुसज्जित होकर कृष्ण तथा बलराम अतीव प्रसन्न हुए और उसी तरह उनके संगी भी। तब दोनों विभूतियों ने अपने समक्ष विनत शरणागत सुदामा को उसके मनवांछित वर प्रदान किये।
 
श्लोक 51:  सुदामा ने समस्त जगत के परमात्मा कृष्ण की अचल भक्ति, उनके भक्तों के साथ मित्रता तथा समस्त जीवों के प्रति दिव्य दया को चुना।
 
श्लोक 52:  भगवान् कृष्ण ने सुदामा को न केवल ये वर दिये अपितु उन्होंने उसे बल, दीर्घायु, यश, कान्ति तथा उसके परिवार की सतत बुद्धिमान हुई समृद्धि भी प्रदान की। तत्पश्चात् कृष्ण तथा उनके बड़े भाई ने उससे विदा ली।
 
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