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अध्याय 43: कृष्ण द्वारा कुवलयापीड हाथी का वध
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संक्षेप विवरण: इस अध्याय में बतलाया गया है कि भगवान् कृष्ण ने किस तरह राजसी हाथी कुवलयापीड को मारा, किस तरह कृष्ण तथा बलराम कुश्ती के अखाड़े में घुसे और कृष्ण ने चाणूर नामक मल्ल... |
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श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे परन्तप, नित्य शौच कर्मों से निवृत्त होकर जब कृष्ण तथा बलराम ने अखाड़े (रंगशाला) में बजने वाले नगाड़े की ध्वनि सुनी तो वे वहाँ यह देखने गये कि हो क्या रहा है। |
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श्लोक 2: जब भगवान् कृष्ण अखाड़े के प्रवेशद्वार पर पहुँचे तो उन्होंने देखा कि कुवलयापीड नामक हाथी अपने महावत की उत्प्रेरणा से उनका रास्ता रोक रहा है। |
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श्लोक 3: भगवान् कृष्ण ने अपना फेंटा कसकर तथा अपने घुँघराले बालों को पीछे बाँधकर महावत से बादलों जैसी गम्भीर गर्जना में ये शब्द कहे। |
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श्लोक 4: [कृष्ण ने कहा]: रे महावत, रे महावत, तुरन्त एक ओर हो जा और हमें निकलने दे। यदि तू ऐसा नहीं करता तो आज ही मैं तुम्हारे हाथी समेत तुम्हें यमराज के धाम भेज दूँगा। |
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श्लोक 5: इस प्रकार धमकाये जाने पर महावत क्रुद्ध हो उठा। उसने अपने उग्र हाथी को अंकुश जमाई। वह आक्रमण करने वाले कृष्ण पर काल, मृत्यु तथा यमराज के समान प्रतीत हुआ। |
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श्लोक 6: उस हस्तिराज ने कृष्ण पर आक्रमण कर दिया और अपनी सूँड़ से तेजी से उन्हें पकड़ लिया। किन्तु कृष्ण सरक गये, उस पर एक घूँसा जमाया और उसके पैरों के बीच जाकर उसकी दृष्टि से ओझल हो गये। |
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श्लोक 7: भगवान् केशव को न देख पाने से क्रुद्ध हुए उस हाथी ने अपनी घ्राण-इन्द्रिय से उन्हें खोज निकाला। कुवलयापीड ने एक बार फिर भगवान् को अपनी सूँड़ के अग्र भाग से पकड़ा किन्तु उन्होंने बलपूर्वक अपने को छुड़ा लिया। |
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श्लोक 8: तब भगवान् कृष्ण ने बलशाली कुवलयापीड को पूँछ से पकड़ा और खेल खेल में वे उसे पच्चीस धनुष-दूरी तक वैसे ही घसीट ले गये जिस तरह गरुड़ किसी साँप को घसीटता है। |
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श्लोक 9: जब भगवान् अच्युत ने हाथी की पूँछ पकड़ी तो वह बाएँ और फिर दाएँ घूमने का प्रयास करने लगा, जिससे भगवान् उल्टी दिशा में घूमने लगे जिस तरह कि कोई बालक किसी बछड़े की पूँछ खींचने पर घूमता है। |
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श्लोक 10: तब कृष्ण उस हाथी के सामने आये और उसे चपत लगाकर भाग गये। कुवलयापीड उनका पीछा करने लगा, वह उन्हें प्रत्येक पग पर बारम्बार छूने का इस तरह का प्रयास करता किन्तु कृष्ण बचकर निकल जाते। उन्होंने उसे झाँसा देकर गिरा दिया। |
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श्लोक 11: कृष्ण झुठलाते हुए खेल खेल में पृथ्वी पर गिर पड़ते और पुन: तेजी से उठ जाते। क्रुद्ध हाथी ने कृष्ण को गिरा समझकर उन पर अपने दाँत चुभोने चाहे किन्तु उल्टे वे दाँत धरती से जा टकराये। |
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श्लोक 12: जब हस्तिराज कुवलयापीड का पराक्रम व्यर्थ गया तो वह निराशा-जनित क्रोध से जलभुन उठा। किन्तु महावत ने उसे अंकुश मारा और उसने पुन: एक बार कृष्ण पर क्रुद्ध होकर आक्रमण कर दिया। |
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श्लोक 13: भगवान् मधुसूदन ने अपने ऊपर आक्रमण करते हुए हाथी का सामना किया। एक हाथ से उसकी सूँड़ पकड़ कर कृष्ण ने उसे धरती पर पटक दिया। |
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श्लोक 14: तब भगवान् हरि शक्तिशाली सिंह के ही समान आसानी से हाथी के ऊपर चढ़ गये, उसका एक दाँत उखाड़ लिया और उसी से उस जानवर को तथा उसके महावतों को मार डाला। |
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श्लोक 15: मरे हुए हाथी को वहीं छोडक़र भगवान् कृष्ण हाथी का दाँत लिये अखाड़े में प्रविष्ट हुए। अपने कंधे पर हाथी का दाँत रखे, उस हाथी के रक्त तथा पसीने के छींटे पड़े हुए शरीर और अपने ही पसीने की छोटी छोटी बूँदों से आच्छादित कमलमुख भगवान् परम सुशोभित लग रहे थे। |
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श्लोक 16: हे राजन्, भगवान् बलदेव तथा भगवान् जनार्दन दोनों ही उस हाथी के एक एक दाँत को अपने चुने हुए हथियार के रूप में लिये हुए अनेक ग्वालबालों के साथ अखाड़े में प्रविष्ट हुए। |
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श्लोक 17: जब कृष्ण अपने बड़े भाई के साथ अखाड़े में प्रविष्ट हुए तो विभिन्न वर्गों के लोगों ने कृष्ण को भिन्न भिन्न रूपों में देखा। पहलवानों ने कृष्ण को वज्र के समान देखा, मथुरावासियों ने श्रेष्ठ-पुरुष के रूप में, स्त्रियों ने साक्षात् कामदेव के रूप में, ग्वालों ने अपने सम्बन्धी के रूप में, दुष्ट शासकों ने दण्ड देने वाले के रूप में, उनके माता-पिता ने अपने शिशु के रूप में, भोजराज ने मृत्यु के रूप में, मूर्खों ने भगवान् के विराट रूप में, योगियों ने परम ब्रह्म के रूप में तथा वृष्णियों ने अपने परम आराध्य देव के रूप में देखा। |
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श्लोक 18: जब कंस ने देखा कि कुवलयापीड मारा गया है और दोनों भाई अजेय हैं, तो हे राजन्, वह चिन्ता से उद्विग्न हो उठा। |
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श्लोक 19: नाना प्रकार के गहनों, मालाओं तथा वस्त्रों से सुसज्जित विशाल भुजाओं वाले वे दोनों (भगवान्) उत्तम वेश धारण किये अभिनेताओं की तरह अखाड़े में शोभायमान हो रहे थे। निस्सन्देह उन्होंने अपने तेज से समस्त देखने वालों के मन को अभिभूत कर लिया। |
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श्लोक 20: हे राजन्, जब नगरवासियों तथा पास पड़ोस के जिलों से आये लोगों ने दीर्घाओं में बैठे अपने अपने स्थानों से दोनों परम पुरुषों को देखा तो प्रसन्नता रूपी शक्ति से उनकी आँखें खुली की खुली रह गईं और उनके मुखमंडल खिल उठे। वे अतृप्त होकर उनके मुखों के दर्शन का पान करते रहे। |
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श्लोक 21-22: ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो लोग अपनी आँखों से कृष्ण तथा बलराम का पान कर रहे हों, अपनी जीभों से उन्हें चाट रहे हों, अपने नथुनों से उन्हें ही सूँघ रहे हों तथा अपनी बाहों से उनका आलिंगन कर रहे हों। भगवान् के सौन्दर्य, चरित्र, माधुर्य तथा बहादुरी का स्मरण करके दर्शकगण देखे तथा सुने गये इन लक्षणों का वर्णन एक-दूसरे से करने लगे। |
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श्लोक 23: [लोगों ने कहा] ये दोनों बालक निश्चय ही भगवान् नारायण के अंश हैं, जो इस जगत में वसुदेव के घर में अवतरित हुए हैं। |
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श्लोक 24: उन्होंने (कृष्ण ने) माता देवकी से जन्म लिया और गोकुल ले जाये गए जहाँ वे इतने समय तक राजा नन्द के घर में छिपकर बढ़ते रहे। |
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श्लोक 25: इन्होंने पूतना तथा चक्रवात असुर का प्राणान्त कर दिया, यमलार्जुन वृक्षों को गिरा दिया और शंखचूड़, केशी, धेनुक तथा ऐसे ही असुरों का वध कर दिया। |
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श्लोक 26-27: इन्होंने गौवों तथा ग्वालों को जंगल की आग से बचाया और कालिय सर्प का दमन किया। इन्होंने अपने एक हाथ में सर्वश्रेष्ठ पर्वत को एक सप्ताह तक धारण किये रखकर इन्द्र देव के मिथ्या गर्व को चूर किया और इस तरह वर्षा, हवा तथा ओलों से गोकुलवासियों की रक्षा की। |
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श्लोक 28: निरन्तर हँसीली चितवन से प्रसन्न तथा थकान से मुक्त इनके मुखमण्डल को निहार-निहार कर गोपियों ने समस्त प्रकार के कष्टों को पार कर लिया और परम सुख का अनुभव किया। |
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श्लोक 29: कहा जाता है कि इनके संरक्षण में यदुकुल अत्यधिक विख्यात होगा और संपदा, यश तथा शक्ति अर्जित करेगा। |
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श्लोक 30: ये कमलनेत्रों वाले उनके ज्येष्ठ भाई भगवान् बलराम समस्त दिव्य ऐश्वर्यों के स्वामी हैं। इन्होंने प्रलम्ब, वत्सक, बक तथा अन्य असुरों का वध किया है। |
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श्लोक 31: जिस समय लोग इस तरह बातें कर रहे थे और तुरहियाँ गूँजने लगीं थी तो पहलवान चाणूर ने कृष्ण तथा बलराम से ये शब्द कहे। |
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श्लोक 32: [चाणूर ने कहा]: हे नन्दपुत्र, हे राम, तुम दोनों ही साहसी पुरुषों द्वारा समादरित हो और दोनों ही कुश्ती लडऩे में दक्ष हो। तुम्हारे पराक्रम को सुनकर राजा ने स्वत: देखने के उद्देश्य से तुम दोनों को यहाँ बुलाया है। |
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श्लोक 33: जो प्रजा राजा को अपने विचारों, कर्मों तथा शब्दों से प्रसन्न रखने का प्रयास करती है उसे अवश्य ही सौभाग्य प्राप्त होता है किन्तु जो लोग ऐसा नहीं कर पाते उन्हें विपरीत भाग्य का सामना करना पड़ता है। |
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श्लोक 34: यह सर्वविदित है कि ग्वालों के बालक अपने बछड़ों को चराते हुए सदैव प्रमुदित रहते हैं और विविध जंगलों में अपने पशुओं को चराते हुए खेल खेल में कुश्ती लड़ते रहते हैं। |
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श्लोक 35: अत: जो राजा चाहता है हम वही करें। इससे हमारे साथ सारे लोग प्रसन्न होंगे, क्योंकि राजा सारे जीवों से समन्वित रूप होता है। |
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श्लोक 36: यह सुनकर भगवान् कृष्ण ने, जो कि कुश्ती लडऩा चाहते थे और इस चुनौती का स्वागत कर रहे थे, समय तथा स्थान के अनुसार यह बात कही। |
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श्लोक 37: [भगवान् कृष्ण ने कहा]: यद्यपि हम वनवासी हैं किन्तु हम भी भोजराज की प्रजा हैं। हमें उनकी इच्छा पूरी करनी चाहिए, क्योंकि ऐसे व्यवहार से हमें अत्यधिक लाभ होगा। |
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श्लोक 38: हम तो निरे बालक ठहरें और हमें समान बल वालों के साथ खेलना चाहिए। इस कुश्ती प्रतियोगिता को उचित ढंग से चलना चाहिए जिससे सम्माननीय दर्शक वर्ग को किसी प्रकार से अधर्म का कलंक न लगे। |
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श्लोक 39: चाणूर ने कहा : वास्तव में तुम न ही बलशालियों में सर्वश्रेष्ठ बलराम, न तो बालक हो, न ही किशोर हो। तुमने खेल खेल में एक हाथी को मारा है, जिसमें एक हजार अन्य हाथियों का बल था। |
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श्लोक 40: अत: तुम दोनों को बलशाली पहलवानों से लडऩा चाहिए। इसमें निश्चय ही कुछ भी अनीति नहीं है। हे वृष्णि-वंशी, तुम अपना पराक्रम मुझ पर आजमा सकते हो और बलराम मुष्टिक के साथ लड़ सकता है। |
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