|
श्लोक |
हस्ताभ्यां हस्तयोर्बद्ध्वा पद्भ्यामेव च पादयो: ।
विचकर्षतुरन्योन्यं प्रसह्य विजिगीषया ॥ २ ॥ |
|
शब्दार्थ |
हस्ताभ्याम्—हाथों से; हस्तयो:—हाथों द्वारा; बद्ध्वा—पकडक़र; पद्भ्याम्—पाँवों से; एव च—भी; पादयो:—अपने पैरों से; विचकर्षतु:—वे घसीटने लगे (कृष्ण चाणूर को तथा बलराम मुष्टिक को); अन्योन्यम्—एक-दूसरे को; प्रसह्य—बलपूर्वक; विजिगीषया—विजय की इच्छा से ।. |
|
अनुवाद |
|
एक-दूसरे के हाथों को पकड़ कर और एक-दूसरे के पाँवों को फँसा कर ये प्रतिद्वन्द्वी विजय की अभिलाषा से बलपूर्वक संघर्ष करने लगे। |
|
|
____________________________ |