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श्लोक |
एवं विकत्थमाने वै कंसे प्रकुपितोऽव्यय: ।
लघिम्नोत्पत्य तरसा मञ्चमुत्तुङ्गमारुहत् ॥ ३४ ॥ |
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शब्दार्थ |
एवम्—इस प्रकार; विकत्थमाने—बढ़-बढक़र बातें कर रहे; वै—निस्सन्देह; कंसे—कंस पर; प्रकुपित:—अत्यन्त क्रुद्ध हुए; अव्यय:—अच्युत भगवान् ने; लघिम्ना—आसानी से; उत्पत्य—उछलकर; तरसा—तेजी से; मञ्चम्—राजमंच पर; उत्तुङ्गम्— ऊँचे; आरुहत्—चढ़ गये ।. |
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अनुवाद |
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जब कंस इस तरह दम्भ से गरज रहा था, तो अच्युत भगवान् कृष्ण अत्यन्त क्रुद्ध होकर तेजी के साथ सरलता से उछलकर ऊँचे राजमंच पर जा पहुँचे। |
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