श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 46: उद्धव की वृन्दावन यात्रा  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस अध्याय में यह वर्णन हुआ है कि श्रीकृष्ण ने किस तरह नन्द, यशोदा तथा तरुण गोपियों के दुख को दूर करने के लिए उद्धव को व्रज भेजा। एक दिन कृष्ण ने अपने घनिष्ठ मित्र...
 
श्लोक 1:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अत्यन्त बुद्धिमान उद्धव वृष्णि वंश के सर्वश्रेष्ठ सलाहकार, भगवान् कृष्ण के प्रिय मित्र तथा बृहस्पति के प्रत्यक्ष शिष्य थे।
 
श्लोक 2:  भगवान् हरि ने जो अपने शरणागतों के सारे कष्टों को हरने वाले हैं, एक बार अपने भक्त एवं प्रियतम मित्र उद्धव का हाथ अपने हाथ में लेकर उससे इस प्रकार कहा।
 
श्लोक 3:  [भगवान् कृष्ण ने कहा] हे भद्र उद्धव, तुम व्रज जाओ और हमारे माता-पिता को आनन्द प्रदान करो। यही नहीं, मेरा सन्देश देकर उन गोपियों को भी क्लेश-मुक्त करो जो मेरे वियोग के कारण कष्ट पा रही हैं।
 
श्लोक 4:  उन गोपियों के मन सदैव मुझमें लीन रहते हैं और उनके प्राण सदैव मुझी में अनुरक्त रहते हैं। उन्होंने मेरे लिए ही अपने शरीर से सम्बन्धित सारी वस्तुओं को त्याग दिया है, यहाँ तक इस जीवन के सामान्य सुख के साथ साथ अगले जीवन में सुख-प्राप्ति के लिए जो धार्मिक कृत्य आवश्यक हैं, उन तक का परित्याग कर दिया है। मैं उनका एकमात्र परम प्रियतम हूँ, यहाँ तक कि उनकी आत्मा हूँ। अत: मैं सभी परिस्थितियों में उनका भरण-पोषण करने का दायित्व अपने ऊपर लेता हूँ।
 
श्लोक 5:  हे उद्धव, गोकुल की उन स्त्रियों के लिए मैं सर्वाधिक स्नेहयोग्य प्रेम-पात्र हूँ। इस तरह जब वे दूर-स्थित मुझको स्मरण करती हैं, तो वे वियोग की उद्विग्नता से विह्वल हो उठती हैं।
 
श्लोक 6:  चूँकि मैंने उनसे वापस आने का वादा किया है इसीलिए मुझमें पूर्णत: अनुरक्त मेरी गोपियाँ किसी तरह से अपने प्राणों को बनाये रखने के लिए संघर्ष कर रही हैं।
 
श्लोक 7:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्, इस तरह कहे जाने पर उद्धव ने आदरपूर्वक अपने स्वामी के सन्देश को स्वीकार किया। वे अपने रथ पर सवार होकर नन्द-गोकुल के लिए चल पड़े।
 
श्लोक 8:  भाग्यशाली उद्धव नन्द महाराज के चरागाहों में उस समय पहुँचे जब सूर्य अस्त होने वाला था और चूँकि लौटती हुई गौवें तथा अन्य पशु अपने खुरों से धूल उड़ा रहे थे अत: उनका रथ अनदेखे ही निकल गया।
 
श्लोक 9-13:  ऋतुमती गौवों के लिए परस्पर लड़ रहे साँड़ों की ध्वनि से, अपने बछड़ों का पीछा कर रही अपने थनों के भार से रँभाती गौवों से, दुहने की तथा इधर-उधर कूद-फाँद कर रहे श्वेत बछड़ों की आवाज से, वंशी बजाने की ऊँची गूँज से, उन गोपों तथा गोपिनों द्वारा, जो गाँव को अपनी अद्भुत रीति से अलंकृत वेशभूषा से सुशोभित कर रहे थे, कृष्ण तथा बलराम के शुभ कार्यों के गुणगान से गोकुलग्राम सभी दिशाओं में गुंजायमान था। गोकुल में ग्वालों के घर यज्ञ-अग्नि, सूर्य, अचानक आए अतिथियों, गौवों, ब्राह्मणों, पितरों तथा देवताओं की पूजा के लिए प्रचुर सामग्रियों से युक्त होने से अतीव आकर्षक प्रतीत हो रहे थे। सभी दिशाओं में पुष्पित वन फैले थे, जो पक्षियों तथा मधुमक्खियों के झुण्डों से गुँजायमान हो रहे थे और हंस, कारण्डव तथा कमल-कुंजों से भरे-पूरे सरोवरों से सुशोभित थे।
 
श्लोक 14:  ज्योंही उद्धव नन्द महाराज के घर पहुँचे, नन्द उनसे मिलने के लिए आगे आ गये। गोपों के राजा ने अत्यन्त सुखपूर्वक उनका आलिंगन किया और वासुदेव की ही तरह उनकी पूजा की।
 
श्लोक 15:  जब उद्धव उत्तम भोजन कर चुके और उन्हें सुखपूर्वक बिस्तर पर बिठा दिया गया तथा पाँवों की मालिश तथा अन्य साधनों से उनकी थकान दूर कर दी गई तो नन्द ने उनसे इस प्रकार पूछा।
 
श्लोक 16:  [नन्द महाराज ने कहा] : हे परम भाग्यशाली, अब शूर का पुत्र मुक्त हो चुकने और अपने बच्चों तथा अन्य सम्बन्धियों से पुन: मिल जाने के बाद कुशल से है न?
 
श्लोक 17:  सौभाग्यवश, अपने ही पापों के कारण पापात्मा कंस अपने समस्त भाइयों सहित मारा जा चुका है। वह सदैव सन्त तथा धर्मात्मा यदुओं से घृणा करता था।
 
श्लोक 18:  क्या कृष्ण हमारी याद करता है? क्या वह अपनी माता तथा अपने मित्रों एवं शुभचिन्तकों की याद करता है? क्या वह ग्वालों तथा उनके गाँव व्रज को, जिसका वह स्वामी है, स्मरण करता है? क्या वह गौवों, वृन्दावन के जंगल तथा गोवर्धन पर्वत की याद करता है?
 
श्लोक 19:  क्या गोविन्द अपने परिवार को देखने एक बार भी वापस आयेगा? यदि वह कभी आयेगा तो हम उसके सुन्दर नेत्र, नाक तथा मुसकाते सुन्दर मुख को देख सकेंगे।
 
श्लोक 20:  उस महान-आत्मा कृष्ण द्वारा हम जंगल की आग, तेज हवा तथा वर्षा, साँड़ तथा सर्प रूपी असुरों जैसे दुर्लंघ्य घातक संकटों से बचा लिये गये थे।
 
श्लोक 21:  जब हम कृष्ण द्वारा सम्पन्न किये गये अद्भुत कार्यों, उसकी चपल चितवन, उसकी हँसी तथा उसकी वाणी का स्मरण करते हैं, तो हे उद्धव, हम अपने सारे भौतिक कार्यों को भूल जाते हैं।
 
श्लोक 22:  जब हम उन स्थानों को—यथा नदियों, पर्वतों तथा जंगलों को—देखते हैं, जिन्हें उसने अपने पैरों से सुशोभित किया और जहाँ उसने क्रीड़ाएँ तथा लीलाएँ कीं तो हमारे मन उसमें पूर्णतया लीन हो जाते हैं।
 
श्लोक 23:  मेरे विचार से कृष्ण तथा बलराम अवश्य ही दो श्रेष्ठ देवता हैं, जो इस लोक में देवताओं का कोई महान् उद्देश्य पूरा करने आये हैं। गर्ग ऋषि ने ऐसी ही भविष्यवाणी की थी।
 
श्लोक 24:  अन्तत: कृष्ण तथा बलराम ने दस हजार हाथियों जितने बलशाली कंस को और साथ ही साथ चाणूर और मुष्टिक पहलवानों एवं कुवलयापीड हाथी को मार डाला। उन्होंने इन सबों को उसी तरह खेल-खेल में आसानी से मार डाला जिस तरह सिंह छोटे पशुओं का सफाया कर देता है।
 
श्लोक 25:  जिस आसानी से कोई तेजस्वी हाथी किसी छड़ी को तोड़ देता है उसी तरह से कृष्ण ने तीन ताल जितने लम्बे एवं सुदृढ़ धनुष को तोड़ डाला। वे सात दिनों तक पर्वत को केवल एक हाथ से ऊपर उठाये रहे।
 
श्लोक 26:  इसी वृन्दावन में कृष्ण तथा बलराम ने बड़ी ही आसानी से प्रलम्ब, धेनुक, अरिष्ट, तृणावर्त तथा बक जैसे उन असुरों का वध किया जो स्वयं देवताओं तथा अन्य असुरों को पराजित कर चुके थे।
 
श्लोक 27:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह बारम्बार कृष्ण को उत्कटता से स्मरण करते हुए, भगवान् में पूर्णतया अनुरक्त मन वाले नन्द महाराज को अत्यधिक उद्विग्नता का अनुभव हुआ और वे अपने प्रेम के वेग से अभिभूत होकर मौन हो गये।
 
श्लोक 28:  ज्योंही माता यशोदा ने अपने पुत्र के कार्यकलापों का वर्णन सुना त्योंही उनके आँखों से आँसू बहने लगे और प्रेम के कारण उनके स्तनों से दूध बहने लगा।
 
श्लोक 29:  तब भगवान् कृष्ण के प्रति नन्द तथा यशोदा के परम अनुराग को स्पष्ट देखकर उद्धव ने हर्षपूर्वक नन्द से कहा।
 
श्लोक 30:  श्री उद्धव ने कहा : हे माननीय नन्द, सम्पूर्ण जगत में निश्चय ही आप तथा माता यशोदा सर्वाधिक प्रशंसनीय हैं क्योंकि आपने समस्त जीवों के गुरु भगवान् नारायण के प्रति ऐसा प्रेम- भाव उत्पन्न कर रखा है।
 
श्लोक 31:  मुकुन्द तथा बलराम—ये दोनों विभु ब्रह्माण्ड के बीज तथा योनि, स्रष्टा तथा उनकी सृजन शक्ति हैं। ये जीवों के हृदयों में प्रवेश करके उनकी बद्ध जागरूकता को नियंत्रित करते हैं। ये आदि परम पुरुष हैं।
 
श्लोक 32-33:  कोई भी व्यक्ति, चाहे वह अशुद्ध अवस्था में ही क्यों न हो, यदि मृत्यु के समय क्षण-भर के लिए भी अपने मन को उन (भगवान्) में लीन कर देता है, तो उसके सारे पापमय कर्मों के फल भस्म हो जाते हैं जिससे उनका नाम-निशान भी नहीं रह जाता और वह सूर्य के समान तेजस्वी शुद्ध आध्यात्मिक स्वरूप में परम दिव्य गन्तव्य को प्राप्त करता है। आप दोनों ने उन मनुष्य-रूप भगवान् नारायण की अद्वितीय प्रेमाभक्ति की है, जो सबों के परमात्मा हैं और सारे प्राणियों के कारण-स्वरूप हैं और जो सबों के मूल कारण हैं। भला अब भी आपको कौन-से शुभ कर्म करने की आवश्यकता है?
 
श्लोक 34:  भक्तों के स्वामी अच्युत कृष्ण शीघ्र ही अपने माता-पिता को तुष्टि प्रदान करने के लिए व्रज लौटेंगे।
 
श्लोक 35:  रंगभूमि में समस्त यदुओं के शत्रु कंस का वध कर चुकने के बाद अब कृष्ण वापस आकर आपको दिये गये वचन को अवश्य ही पूरा करेंगे।
 
श्लोक 36:  हे भाग्यशालीजनो, आप शोक मत करें। आप शीघ्र ही कृष्ण को देख सकेंगे। वे समस्त जीवों के हृदयों में उसी तरह विद्यमान हैं जिस तरह काष्ठ में अग्नि सुप्त रहती है।
 
श्लोक 37:  उनके लिए कोई न तो विशेष प्रिय है, न अप्रिय; न तो श्रेष्ठ है न निम्न है; फिर भी वे किसी से अन्यमनस्क नहीं हैं। वे सम्मान पाने की सारी इच्छा से रहित हैं फिर भी वे सबों का सम्मान करते हैं।
 
श्लोक 38:  न तो उनके माता है, न पिता, न पत्नी, न पुत्र या अन्य कोई सम्बन्धी। उनसे किसी का सम्बन्ध नहीं है फिर भी उनका कोई पराया नहीं है। न तो उनका भौतिक शरीर है, न कोई जन्म।
 
श्लोक 39:  उन्हें इस जगत में ऐसा कोई कर्म करना शेष नहीं जो उन्हें शुद्ध, अशुद्ध या मिश्रित योनियों में जन्म लेने के लिए बाध्य कर सके। फिर भी अपनी लीलाओं का आनन्द लेने और अपने साधु-भक्तों का उद्धार करने के लिए वे स्वयं प्रकट होते हैं।
 
श्लोक 40:  यद्यपि दिव्य भगवान् भौतिक प्रकृति के तीन गुणों—सतो, रजो तथा तमो गुणों—से परे हैं फिर भी क्रिड़ा के रूप में वे इनकी संगति स्वीकार करते हैं। इस तरह अजन्मा भगवान् इन भौतिक गुणों का उपयोग सृजन, पालन तथा संहार के लिए करते हैं।
 
श्लोक 41:  जिस तरह चक्री में घूमने वाला व्यक्ति धरती को घूमता देखता है उसी तरह जो व्यक्ति मिथ्या अहंकार के वशीभूत होता है, वह अपने को कर्ता मानता है, जबकि वास्तव में उसका मन कार्य करता होता है।
 
श्लोक 42:  निश्चय ही भगवान् हरि एकमात्र आपके पुत्र नहीं हैं, प्रत्युत भगवान् होने के कारण वे हर एक के पुत्र, आत्मा, पिता तथा माता हैं।
 
श्लोक 43:  भगवान् अच्युत से किसी भी वस्तु का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है—चाहे वह भूत से या वर्तमान से अथवा भविष्य से सम्बन्धित हो, वह देखी हो या सुनी हो, चर हो या अचर हो, विशाल हो या क्षुद्र। दरअसल वे ही सर्वस्व हैं क्योंकि वे परमात्मा हैं।
 
श्लोक 44:  हे राजन् जब कृष्ण के दूत उद्धव नन्द महाराज से बातें करे जा रहे थे तो रात बीत गई। गोकुल की स्त्रियाँ तब नींद से जग गई और उन्होंने दीपक जलाकर अपने अपने घरों के अर्चाविग्रहों की पूजा की। इसके बाद वे दही मथने लगीं।
 
श्लोक 45:  जब व्रज की स्त्रियाँ कंगन पहने हुए हाथों से मथानी की रस्सियाँ खींच रही थीं तो वे दीपक के प्रकाश से प्रतिबिम्बित मणियों की चमक से दीपित हो रही थीं। उनके नितम्ब, स्तन तथा गले के हार हिल-डुल रहे थे और लाल कुंकुम से पुते उनके मुखमण्डल, गालों पर पड़ी कान की बालियों की चमक से चमचमा रहे थे।
 
श्लोक 46:  जब व्रज की स्त्रियाँ कमल-नेत्र कृष्ण की महिमा का गायन जोर-जोर से करने लगीं तो उनके गीत उनके मथने की ध्वनि से मिल कर आकाश तक उठ गये और उन्होंने सारी दिशाओं के अमंगल को दूर कर दिया।
 
श्लोक 47:  जब सूर्यदेव उदित हो चुके तो व्रजवासियों ने नन्द महाराज के दरवाजे के सामने एक सुनहरा रथ देखा। (अत:) उन्होंने पूछा, “यह किसका रथ है?”
 
श्लोक 48:  “शायद अक्रूर लौट आया है—वही जिसने कमल-नेत्र कृष्ण को मथुरा ले जाकर कंस की इच्छा पूरी की थी।
 
श्लोक 49:  जब स्त्रियाँ इस तरह बोल ही रही थीं कि, “क्या वह अपनी सेवाओं से प्रसन्न हुए अपने स्वामी के पिण्डदान के लिए हमारे मांस को अर्पित करने जा रहा है?” तभी प्रात:कालीन कृत्यों से निवृत्त हुए उद्धव दिखलाई पड़े।
 
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