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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 50: कृष्ण द्वारा द्वारकापुरी की स्थापना  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस अध्याय में बतलाया गया है कि किस तरह कृष्ण ने जरासन्ध को युद्ध में सत्रह बार हराकर द्वारकापुरी का निर्माण किया। कंस के मारे जाने के बाद उसकी दोनों रानियाँ—अस्ति...
 
श्लोक 1:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब कंस मार डाला गया तो हे भरतर्षभ, उसकी दो पटरानियाँ अस्ति तथा प्राप्ति अत्यन्त दुखी होकर अपने पिता के घर चली गईं।
 
श्लोक 2:  दुखी रानियों ने अपने पिता मगध के राजा जरासन्ध से सारा हाल कह सुनाया कि वे किस तरह विधवा हुईं।
 
श्लोक 3:  हे राजन्, यह अप्रिय समाचार सुनकर जरासन्ध शोक तथा क्रोध से भर गया और पृथ्वी को यादवों से विहीन करने के यथासम्भव प्रयास में जुट गया।
 
श्लोक 4:  उसने तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर यदुओं की राजधानी मथुरा के चारों ओर घेरा डाल दिया।
 
श्लोक 5-6:  यद्यपि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण इस संसार के आदि-कारण हैं किन्तु जब वे इस पृथ्वी पर अवतरित हुए तो उन्होंने मनुष्य की भूमिका निबाही। अत: जब उन्होंने देखा कि जरासन्ध की सेना ने उनकी नगरी को उसी तरह घेर लिया है, जिस तरह महासागर अपने किनारों को तोडक़र बहने लगता है और जब उन्होंने देखा कि यह सेना उनकी प्रजा में भय उत्पन्न कर रही है, तो भगवान् ने विचार किया कि देश, काल तथा उनके वर्तमान अवतार के विशिष्ट प्रयोजन के अनुकूल उनकी उपयुक्त प्रतिक्रिया क्या होनी चाहिए।
 
श्लोक 7-8:  [भगवान् ने सोचा] : चूँकि पृथ्वी पर इतना भार है, अत: मैं जरासन्ध की इस सेना को विनष्ट कर दूँगा जिसमें अक्षौहिणियों पैदल सैनिक, घोड़े, रथ तथा हाथी हैं, जिसे मगध के राजा ने अपने अधीनस्थ राजाओं से बटोरकर यहाँ ला खड़ा किया है। किन्तु मुझे जरासंध को नहीं मारना चाहिए क्योंकि भविष्य में वह निश्चित रूप से दूसरी सेना जोड़ लेगा।
 
श्लोक 9:  मेरे इस अवतार का यही प्रयोजन है—पृथ्वी के भार को दूर करना, साधुओं की रक्षा करना और असाधुओं का वध करना।
 
श्लोक 10:  मैं धर्म की रक्षा करने तथा जब जब समय के साथ अधर्म की प्रधानता होती है, तो उसका अन्त करने के लिए भी अन्य शरीर धारण करता हूँ।
 
श्लोक 11:  [शुकदेव गोस्वामी ने कहा] : जब भगवान् गोविन्द इस तरह सोच रहे थे तो सूर्य के समान तेज वाले दो रथ आकाश से सहसा नीचे उतरे। वे सारथियों तथा साज-सज्जा से युक्त थे।
 
श्लोक 12:  उसी समय भगवान् के दिव्य हथियार भी स्वत: उनके समक्ष प्रकट हो गये। इन्हें देखकर इन्द्रियों के स्वामी श्रीकृष्ण ने भगवान् संकर्षण से कहा।
 
श्लोक 13-14:  [भगवान् ने कहा] : हे पूज्य ज्येष्ठ भ्राता, आप अपने आश्रित यदुओं पर आये हुए इस संकट को तो देखिये! और हे प्रभु, यह भी देखिये कि आपका निजी रथ तथा आपकी पसन्द के हथियार आपके समक्ष आ चुके हैं। हे प्रभु! हमने जिस उद्देश्य से जन्म लिया है, वह अपने भक्तों के कल्याण को सुरक्षित करना है। कृपया अब इन तेईस सैन्य-टुकडिय़ों के भार को पृथ्वी से हटा दीजिये।
 
श्लोक 15:  भगवान् कृष्ण द्वारा अपने भाई को इस तरह आमंत्रित करने के बाद, दोनों दशार्ह कृष्ण तथा बलराम कवच पहन कर और अपने अपने चमचमाते हथियारों को प्रदर्शित करते हुए अपने रथों पर चढक़र नगरी के बाहर चले गये। उनके साथ सैनिकों की छोटी-सी टुकड़ी ही थी।
 
श्लोक 16:  जब भगवान् कृष्ण दारुक द्वारा हाँके जा रहे अपने रथ पर चढक़र नगरी से बाहर आ गये तो उन्होंने अपना शंख बजाया। इससे शत्रु-सैनिकों के हृदय भय से काँपने लगे।
 
श्लोक 17:  जरासन्ध ने दोनों की ओर देखा और कहा : अरे पुरुषों में अधम कृष्ण, मैं तुझसे अकेले नहीं लडऩा चाहता क्योंकि एक बालक से युद्ध करना लज्जा की बात होगी। अरे अपने को गुप्त रखने वाले मूर्ख, अपने सम्बन्धियों की हत्या करने वाले, तू भाग जा! मैं तुझसे युद्ध नहीं करूँगा।
 
श्लोक 18:  रे बलराम, तू धैर्य सँजो करके मुझसे लड़, यदि तू सोचता है कि तू ऐसा कर सकता है। या तो तू मेरे बाणों के द्वारा खण्ड खण्ड होने से अपना शरीर त्याग और इस तरह स्वर्ग प्राप्त कर या फिर तू मुझे जान से मार।
 
श्लोक 19:  भगवान् ने कहा : असली वीर केवल डींग नहीं मारते अपितु अपने कार्य के द्वारा पराक्रम का प्रदर्शन करते हैं। जो चिन्ता से पूर्ण हो और मरना चाहता हो उसके शब्दों को हम गम्भीरता से नहीं ले सकते।
 
श्लोक 20:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जिस तरह वायु बादलों से सूर्य को या धूल से अग्नि को ढक लेती है उसी तरह जरा का पुत्र, मधु के दो वंशजों की ओर चल पड़ा और उसने अपनी विशाल सेनाओं से उन्हें तथा उनके सैनिकों, रथों, पताकाओं, घोड़ों तथा सारथियों को घेर लिया।
 
श्लोक 21:  स्त्रियाँ अटारियों, महलों तथा नगर के ऊँचे द्वारों पर खड़ी हुई थीं। जब उन्हें कृष्ण तथा बलराम के रथ नहीं दिखाई पड़े, जिनकी पहचान गरुड़ तथा ताड़-वृक्ष के प्रतीकों से चिन्हित पताकाओं से होती थी, तो वे शोकाकुल होकर मूर्च्छित हो गईं।
 
श्लोक 22:  अपने चारों ओर बादलों जैसी विशाल शत्रु सेनाओं के बाणों की भयानक तथा निर्मम वर्षा से अपनी सेना को पीडि़त देखकर भगवान् हरि ने अपने उस उत्तम धनुष शार्ङ्ग पर टंकार की जो देवताओं तथा असुरों दोनों के द्वारा पूजित है।
 
श्लोक 23:  भगवान् कृष्ण ने अपने तरकस से तीर निकाले, उन्हें प्रत्यंचा (धनुष की डोरी) पर स्थित किया (चढ़ाया), डोरी खींची और तीक्ष्ण बाणों की झड़ी लगा दी जिसने शत्रु के रथों, हाथियों, घोड़ों तथा पैदल सिपाहियों पर जाकर वार किया। भगवान् अपने तीरों को अलात- चक्र की तरह छोड़ रहे थे।
 
श्लोक 24:  हाथी धराशायी हो गये, उनके माथे फट गये, कटी गर्दनों वाले सेना के घोड़े गिर गये, रथ घोड़ों, झंडों, सारथियों तथा स्वामियों समेत टूट-फूटकर गिर गये और कटी हुई भुजाओं, जाँघों तथा कन्धों वाले पैदल सिपाहियों ने दम तोड़ दिए।
 
श्लोक 25-28:  युद्धभूमि में मनुष्यों, हाथियों तथा घोड़ों के खण्ड खण्ड हो जाने से रक्त की सैकड़ों नदियाँ बह चलीं। इन नदियों में बाँहें सर्पों के तुल्य, मनुष्यों के सिर कछुवों की तरह, मृत हाथी द्वीपों की तरह तथा मृत घोड़े घडिय़ालों की तरह प्रतीत हो रहे थे। उनके हाथ तथा जाँघें मछली की तरह, मनुष्यों के बाल सिवार की तरह, बाण लहरों की तरह तथा विविध हथियार झाडिय़ों के कुंज जैसे लग रहे थे। रक्त की नदियाँ इन सारी वस्तुओं से पड़ी थीं। रथ के पहिए भयावनी भँवरों जैसे और बहुमूल्य मोती तथा आभूषण तेजी से बहती लाल रंग की नदियों में पत्थरों तथा रेत की तरह लग रहे थे, जो कायरों में भय और बुद्धिमानों में हर्ष उत्पन्न करने वाले थे। अपने हलायुध के प्रहारों से अत्यधिक शक्तिशाली बलराम ने मगधेन्द्र की सैनिक-शक्ति विनष्ट कर दी। यद्यपि यह सेना दुर्लंघ्य सागर की भाँति अथाह एवं भयावनी थी किन्तु वसुदेव के दोनों पुत्रों के लिए, जो कि ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं, यह युद्ध खिलवाड़ से अधिक नहीं था।
 
श्लोक 29:  जो तीनों लोकों के सृजन, पालन और संहार को एकसाथ सम्पन्न करने वाले हैं तथा जो असीम दिव्य गुणों वाले हैं उनके लिए विरोधी दल का दमन कर देना आश्चर्यजनक नहीं है। फिर भी जब भगवान् मानव-आचरण का अनुकरण करते हुए ऐसा करते हैं, तो साधुगण उनके कार्यों का गुणगान करते हैं।
 
श्लोक 30:  रथविहीन होने तथा सारे सैनिक मारे जाने से जरासन्ध के पास केवल श्वास शेष थी। उस समय बलराम ने उस बलशाली योद्धा को उसी तरह पकड़ लिया जिस तरह एक सिंह दूसरे सिंह को पकड़ लेता है।
 
श्लोक 31:  अनेक शत्रुओं का वध करने वाले बलराम, जरासन्ध को वरुण के दैवी-पाश से तथा अन्य लौकिक रस्सियों से बाँधने लगे। किन्तु गोविन्द को अभी जरासन्ध के माध्यम से कुछ कार्य करना शेष था अत: उन्होंने बलराम से रुक जाने के लिए कहा।
 
श्लोक 32-33:  जरासन्ध जिसको योद्धा अत्यधिक सम्मान देते थे, जब ब्रह्माण्ड के दोनों स्वामियों ने उसे छोड़ दिया तो वह अत्यन्त लज्जित हुआ और उसने तपस्या करने का निश्चय किया। किन्तु मार्ग में कई राजाओं ने आध्यात्मिक ज्ञान तथा संसारी तर्कों के द्वारा उसे आश्वस्त किया कि उसे आत्मोत्सर्ग का विचार त्याग देना चाहिए। उन्होंने उससे कहा, “यदुओं द्वारा आपको हराया जाना तो आपके गत कर्मों का परिहार्य फल है।”
 
श्लोक 34:  अपनी सारी सेना मारी जाने तथा स्वयं भी भगवान् द्वारा उपेक्षित होने से बृहद्रथ-पुत्र राजा जरासन्ध उदास मन से अपने राज्य मगध को लौट गया।
 
श्लोक 35-36:  भगवान् मुकुन्द ने अक्षत अपनी पूर्णत: सेना के द्वारा अपने शत्रु की सेनाओं के समुद्र को पार कर लिया था। स्वर्ग के निवासियों ने उन पर फूलों की वर्षा करते हुए उन्हें बधाइयाँ दीं। मथुरा के निवासी अपनी ज्वरयुक्त चिन्ता से मुक्त होकर तथा हर्ष से पूरित होकर उनसे मिलने के लिए बाहर निकल आये और सूतों, मागधों तथा वन्दीजनों ने उनकी विजय की प्रशंसा में गीत गाये।
 
श्लोक 37-38:  ज्योंही भगवान् ने नगरी में प्रवेश किया, शंख तथा दुन्दुभियाँ बजने लगीं और अनेक ढोल, तुरहियाँ, वीणा, वंशी तथा मृदंग एकसाथ बजने लगे। रास्तों को जल छिडक़ा गया था, सर्वत्र पताकाएँ लगी थीं तथा प्रवेशद्वारों को समारोह के लिए सजाया गया था। उसके नागरिक उत्साहित थे और नगरी वैदिक स्तोत्रों के उच्चारण से गूँज रही थी।
 
श्लोक 39:  ज्योंही नगरी की स्त्रियों ने भगवान् पर स्नेहयुक्त दृष्टि डाली, उनके नेत्र प्रेमवश खुले के खुले रह गये। उन्होंने भगवान् पर फूल-मालाएँ, दही, अक्षत तथा नवांकुरों की वर्षा की।
 
श्लोक 40:  तत्पश्चात् भगवान् कृष्ण ने यदुराज को वह सारी सम्पत्ति लाकर भेंट की जो युद्धभूमि में गिरी थी अर्थात् जो मृत योद्धाओं के अनगिनत आभूषणों के रूप में थी।
 
श्लोक 41:  मगध का राजा इसी तरह से सत्रह बार पराजित होता रहा। फिर भी इन पराजयों में वह अपनी कई अक्षौहिणी सेनाओं से यदुवंश की उन सेनाओं के विरुद्ध लड़ता रहा जो श्रीकृष्ण द्वारा संरक्षित थीं।
 
श्लोक 42:  भगवान् कृष्ण की शक्ति से, वृष्णिजन जरासन्ध की सारी सेना को नष्ट करते रहे और जब उसके सारे सैनिक मार डाले जाते तो राजा (जरासन्ध) अपने शत्रुओं द्वारा छोड़ दिये जाने पर पुन: वहाँ से चला जाता।
 
श्लोक 43:  जब अठारहवाँ युद्ध होने ही वाला था, तो कालयवन नामक एक बर्बर योद्धा, जिसे नारद ने भेजा था, युद्ध-क्षेत्र में प्रकट हुआ।
 
श्लोक 44:  मथुरा आकर इस यवन ने तीन करोड़ बर्बर (म्लेच्छ) सैनिकों समेत इस नगरी में घेरा डाल दिया। उसे कभी अपने से लडऩे योग्य प्रतिद्वन्द्वी व्यक्ति नहीं मिला था किन्तु उसने सुना था कि वृष्णिजन उसकी जोड़ के हैं।
 
श्लोक 45:  जब भगवान् कृष्ण तथा भगवान् संकर्षण ने कालयवन को देखा तो कृष्ण ने स्थिति पर विचार किया और कहा, “ओह! अब तो यदुओं पर दो ओर से संकट आ पड़ा है।”
 
श्लोक 46:  “हमें यह यवन पहले से घेरे हुए है और शीघ्र ही यदि आज नहीं, तो कल या परसों तक मगध का बलशाली राजा यहाँ आ पहुँचेगा।”
 
श्लोक 47:  “यदि हमारे दोनों के कालयवन से युद्ध करने में संलग्न रहते समय, बलशाली जरासन्ध आता है, तो वह या तो हमारे सम्बन्धियों को मार सकता है या फिर उन्हें पकडक़र अपनी राजधानी ले जा सकता है।”
 
श्लोक 48:  “अत: हम तुरन्त ऐसा किला बनायेंगे जिसमें मानवी सेना प्रवेश न कर पाये। अपने पारिवारिक जनों को उसमें वसा देने के पश्चात् हम म्लेच्छराज का वध करेंगे।”
 
श्लोक 49:  इस तरह बलराम से सलाह करने के बाद भगवान् ने समुद्र के भीतर बारह योजन परिधि वाला एक किला बनवाया। इस किले के भीतर उन्होंने एक ऐसा नगर बनाया जिसमें एक से एक बढ़ कर अद्भुत वस्तुएँ उपलब्ध थीं।
 
श्लोक 50-53:  उस नगर के निर्माण में विश्वकर्मा के पूर्ण विज्ञान तथा शिल्पकला को देखा जा सकता था। उसमें चौेड़े मार्ग, व्यावसायिक सडक़ें तथा चौराहे थे, जो विस्तृत भू-खण्ड में बनाये गये थे। उसमें भव्य पार्क थे और स्वर्ग-लोक से लाये गये वृक्षों तथा लताओं से युक्त बगीचे भी थे। उसके गोपुर के मीनारों के ऊपर सोने के बुर्ज थे, जो आकाश को चूम रहे थे। उनकी अटारियाँ स्फटिक मणियों से बनी थीं। सोने से आच्छादित घरों के सामने का भाग सुनहरे घड़ों से सजाया गया था और उनकी छतें रत्नजटित थीं तथा फर्श में बहुमूल्य मरकत मणि जड़े थे। घरों के पास ही कोषागार, भंडार तथा आकर्षक घोड़ों के अस्तबल थे, जो चाँदी तथा पीतल के बने हुए थे। प्रत्येक आवास में एक चौकसी बुर्जी थी और घरेलू अर्चाविग्रह के लिए मन्दिर था। यह नगर चारों वर्णों के लोगों से पूरित था और यदुओं के स्वामी श्रीकृष्ण के महलों के कारण विशेष रूप से अलंकृत था।
 
श्लोक 54:  इन्द्र ने श्रीकृष्ण के लिए सुधर्मा सभागार ला दिया जिसके भीतर खड़ा मनुष्य मृत्यु के नियमों से प्रभावित नहीं होता। इन्द्र ने पारिजात वृक्ष भी लाकर दिया।
 
श्लोक 55:  वरुण ने मन के समान वेग वाले घोड़े दिये जिनमें से कुछ शुद्ध श्याम रंग के थे और कुछ सफेद थे। देवताओं के कोषाध्यक्ष कुवेर ने अपनी आठों निधियाँ दीं और विभिन्न लोकपालों ने अपने अपने ऐश्वर्य प्रदान किये।
 
श्लोक 56:  हे राजन्, जब भगवान् पृथ्वी पर आ गये तो इन देवताओं ने उन सभी सिद्धियों को उन्हें अर्पित कर दिया जो उन्हें अपने विशेष अधिकार के निष्पादन के लिए पहले प्राप्त हुई थीं।
 
श्लोक 57:  अपनी योगमाया-शक्ति के बल से जब भगवान् कृष्ण ने अपनी सारी प्रजा को नये नगर में पहुँचा दिया तो उन्होंने बलराम से सलाह की जो मथुरा में उसकी रक्षा करने के लिए रह गये थे। तब गले में कमल के फूलों की माला पहने और बिना हथियार के भगवान् कृष्ण मुख्य दरवाजे से होकर मथुरा से बाहर चले गये।
 
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