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अध्याय 51: मुचुकुन्द का उद्धार |
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संक्षेप विवरण: इस अध्याय में बतलाया गया है कि किस तरह कृष्ण ने मुचुकुन्द की वक्र दृष्टि द्वारा कालयवन का वध कराया और कृष्ण तथा मुचुकुन्द के बीच क्या वार्ता हुई।
अपने परिवारजनों... |
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श्लोक 1-6: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : कालयवन ने भगवान् को मथुरा से उदित होते चन्द्रमा की भाँति आते देखा। देखने में भगवान् अतीव सुन्दर थे, उनका वर्ण श्याम था और वे रेशमी पीताम्बर धारण किये थे। उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह था और उनके गले में कौस्तुभमणि सुशोभित थी। उनकी चारों भुजाएँ बलिष्ठ तथा लम्बी थीं। उनका मुख कमल सदृश सदैव प्रसन्न रहने वाला था, आँखें गुलाबी कमलों जैसी थीं, उनके गाल सुन्दर तेजवान थे, हँसी स्वच्छ थी तथा उनके कान की चमकीली बालियाँ मछली की आकृति की थीं। उस म्लेच्छ ने सोचा, “यह व्यक्ति अवश्य ही वासुदेव होगा क्योंकि इसमें वे ही लक्षण दिख रहे हैं, जिनका उल्लेख नारद ने किया था—उसके श्रीवत्स का चिन्ह है, चार भुजाएँ हैं, आँखें कमल जैसी हैं और वह वनफूलों की माला पहने है और अत्यधिक सुन्दर है। वह और कोई नहीं हो सकता। चूँकि वह पैदल चल रहा है और कोई हथियार नहीं लिए है, अतएव मैं भी बिना हथियार के उससे युद्ध करूँगा।” यह मन में ठान कर वह भगवान् के पीछे पीछे दौडऩे लगा और भगवान् उसकी ओर पीठ करके भागते गये। कालयवन को आशा थी कि वह कृष्ण को पकड़ लेगा यद्यपि बड़े बड़े योगी भी उन्हें प्राप्त नहीं कर पाते। |
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श्लोक 7: प्रति क्षण कालयवन के हाथों की पहुँच में प्रतीत होते हुए भगवान् हरि उस यवनराज को दूर एक पर्वत—कन्दरा तक ले गये। |
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श्लोक 8: भगवान् का पीछा करते हुए वह यवन उन पर यह कह कर अपमान कर रहा था, “तुमने यदुवंश में जन्म ले रखा है, तुम्हारे लिए इस तरह भागना उचित नहीं है!” तो भी कालयवन भगवान् कृष्ण के पास तक नहीं पहुँच पाया क्योंकि उसके पाप कर्म-फल अभी धुले नहीं थे। |
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श्लोक 9: यद्यपि भगवान् इस तरह से अपमानित हो रहे थे किन्तु वे पर्वत की गुफा में घुस गये। उनके पीछे पीछे कालयवन भी घुसा और उसने वहाँ एक अन्य पुरुष को सोये हुए देखा। |
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श्लोक 10: “यह तो मुझे इतनी दूर लाकर अब किसी साधु-पुरुष की तरह यहाँ लेट गया है।” इस तरह सोते हुए उस व्यक्ति को भगवान् कृष्ण समझ कर, उस ठगे हुए मूर्ख ने पूरे बल से उस पर पाद प्रहार किया। |
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श्लोक 11: वह पुरुष दीर्घकाल तक सोने के बाद जागा था और धीरे धीरे उसने अपनी आँखें खोलीं। चारों ओर देखने पर उसे अपने पास ही कालयवन खड़ा हुआ दिखाई दिया। |
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श्लोक 12: वह जगाया हुआ पुरुष अत्यन्त क्रुद्ध था। उसने अपनी दृष्टि कालयवन पर डाली तो उसके शरीर से लपटें निकलने लगीं। हे राजा परीक्षित, कालयवन क्षण-भर में जल कर राख हो गया। |
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श्लोक 13: राजा परीक्षित ने कहा : हे ब्राह्मण, वह पुरुष कौन था? वह किस वंश का था और उसकी शक्तियाँ क्या थीं? म्लेच्छ का संहार करने वाला वह व्यक्ति गुफा में क्यों सोया हुआ था और वह किसका पुत्र था? |
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श्लोक 14: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : उस महापुरुष का नाम मुचुकुन्द था और वह इक्ष्वाकु वंश में मान्धाता के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ था। वह ब्राह्मण संस्कृति का उपासक था और युद्ध में अपने व्रत का पक्का था। |
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श्लोक 15: जब इन्द्र तथा अन्य देवताओं को असुरों द्वारा त्रास दिये जा रहे थे तो उनके द्वारा अपनी रक्षा के लिए सहायता की याचना किये जाने पर मुचुकुन्द ने दीर्घकाल तक उनकी रक्षा की। |
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श्लोक 16: जब देवताओं को अपने सेनापति के रूप में कार्तिकेय प्राप्त हो गये तो उन्होंने मुचुकुन्द से कहा, “हे राजन्, अब आप हमारी रक्षा का कष्टप्रद कार्य छोड़ सकते हैं।” |
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श्लोक 17: “हे वीर पुरुष, नर-लोक में अपने निष्कण्टक राज्य को छोडक़र आपने हमारी रक्षा करते हुए अपनी निजी आकांक्षाओं की परवाह नहीं की।” |
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श्लोक 18: “बच्चे, रानियाँ, सम्बन्धी, मंत्री, सलाहकार तथा आपकी समकालीन प्रजा—इनमें से कोई अब जीवित नहीं रहे। वे सभी काल के द्वारा बहा ले जाये गये हैं।” |
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श्लोक 19: “अनंत काल समस्त बलवानों से भी बलवान है और वही साक्षात् परमेश्वर है। जिस तरह पशु-पालक (ग्वाला) अपने पशुओं को हाँकता रहता है उसी तरह परमेश्वर मर्त्य प्राणियों को अपनी लीला के रूप में हाँकते रहते हैं।” |
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श्लोक 20: “आपका कल्याण हो, अब आप मोक्ष के सिवाय कोई भी वर चुन सकते हैं क्योंकि मोक्ष को तो एकमात्र अविनाशी भगवान् विष्णु ही प्रदान कर सकते हैं।” |
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श्लोक 21: ऐसा कहे जाने पर राजा मुचुकुन्द ने देवताओं से ससम्मान विदा ली और एक गुफा में गया जहाँ वे देवताओं द्वारा दी गई नींद का आनन्द लेने के लिए लेट गया। |
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श्लोक 22: जब यवन जल कर राख हो गया तो सात्वतों के प्रमुख भगवान् ने उस बुद्धिमान मुचुकुन्द के समक्ष अपने को प्रकट किया। |
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श्लोक 23-26: जब राजा मुचुकुन्द ने भगवान् की ओर निहारा तो देखा कि वे बादल के समान गहरे नीले रंग के थे, उनकी चार भुजाएँ थीं और वे रेशमी पीताम्बर पहने थे। उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह था और गले में चमचमाती कौस्तुभ मणि थी। वैजयन्ती माला से सज्जित भगवान् ने उसे अपना मनोहर शान्त मुख दिखलाया जो मछली की आकृति के कुण्डलों तथा स्नेहपूर्ण मन्द-हास से युक्त चितवन से सारे मनुष्यों की आँखों को आकृष्ट कर लेता है। उनके तरुण स्वरूप का सौन्दर्य अद्वितीय था और वे क्रुद्ध सिंह की भव्य चाल से चल रहे थे। अत्यन्त बुद्धिमान राजा भगवान् के तेज से अभिभूत हो गया। यह तेज उसे दुर्धर्ष जान पड़ा। अपनी अनिश्चयता व्यक्त करते हुए मुचुकुन्द ने झिझकते हुए भगवान् कृष्ण से इस प्रकार पूछा। |
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श्लोक 27: श्री मुचुकुन्द ने कहा, “आप कौन हैं, जो जंगल में इस पर्वत-गुफा में अपने कमल की पंखडिय़ों जैसे कोमल पाँवों से कँटीली भूमि पर चलकर आये हैं?” |
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श्लोक 28: शायद आप समस्त शक्तिशाली जीवों की शक्ति हैं। या फिर आप शक्तिशाली अग्नि देव या सूर्यदेव, चन्द्रदेव, स्वर्ग के राजा इन्द्र या अन्य किसी लोक के शासन करने वाले देवता तो नहीं हैं? |
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श्लोक 29: मेरे विचार से आप तीन प्रमुख देवताओं में भगवान् हैं क्योंकि आप इस गुफा के अँधेरे को उसी तरह भगा रहे हैं जिस तरह दीपक अपने प्रकाश से अँधकार को दूर कर देता है। |
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श्लोक 30: हे पुरुषोत्तम यदि आपको ठीक लगे तो आप अपने जन्म, कर्म तथा गोत्र के विषय में हमसे सही सही (स्पष्ट) बतलायें क्योंकि हम सुनने के इच्छुक हैं। |
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श्लोक 31: हे पुरुष-व्याघ्र, जहाँ तक हमारी बात है, हम तो पतित क्षत्रियों के वंश से सम्बन्धित हैं और राजा इक्ष्वाकु के वंशज हैं। हे प्रभु, मेरा नाम मुचुकुन्द है और मैं युवनाश्व का पुत्र हूँ। |
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श्लोक 32: दीर्घकाल तक जागे रहने के कारण मैं थक गया था और नींद से मेरी इन्द्रियाँ वशीभूत थीं। इस तरह मैं तब से इस निर्जन स्थान में सुखपूर्वक सोता रहा हूँ किन्तु अब जाकर किसी ने मुझे जगा दिया है। |
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श्लोक 33: जिस व्यक्ति ने मुझे जगाया था वह अपने पापों के फल से जल कर राख हो गया। तभी मैंने यशस्वी स्वरूप वाले एवं अपने शत्रुओं को दण्ड देने की शक्ति से सामर्थ्यवान आपको देखा। |
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श्लोक 34: आपके असह्य तेज से हमारी शक्ति दबी जाती है और हम आप पर अपनी दृष्टि स्थिर नहीं कर पाते। हे माननीय, आप समस्त देहधारियों द्वारा आदर किये जाने के योग्य हैं। |
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श्लोक 35: [शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा]: राजा द्वारा इस तरह कहे जाने पर समस्त सृष्टि के उद्गम भगवान् मुसकराने लगे और तब उन्होंने बादलों की गर्जना के सदृश गम्भीर वाणी में उसे उत्तर दिया। |
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श्लोक 36: भगवान् ने कहा : हे मित्र, मैं हजारों जन्म ले चुका हूँ; हजारों जीवन जी चुका हूँ; और हजारों नाम धारण कर चुका हूँ। वस्तुत: मेरे जन्म, कर्म तथा नाम अनन्त हैं, यहाँ तक कि मैं भी उनकी गणना नहीं कर सकता। |
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श्लोक 37: यह सम्भव है कि कोई व्यक्ति पृथ्वी पर धूल-कणों की गणना कई जन्मों में कर ले किन्तु मेरे गुणों, कर्मों, नामों तथा जन्मों की गणना कोई भी कभी पूरी नहीं कर सकता। |
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श्लोक 38: हे राजन्, बड़े से बड़े ऋषि मेरे उन जन्मों तथा कर्मों की गणना करते रहते हैं, जो काल की तीनों अवस्थाओं में घटित होते हैं किन्तु वे कभी उसका अन्त नहीं पाते। |
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श्लोक 39-40: तो भी हे मित्र, मैं अपने इस (वर्तमान) जन्म, नाम तथा कर्म के विषय में तुम्हें बतलाऊँगा। कृपया सुनो। कुछ काल पूर्व ब्रह्मा ने मुझसे धर्म की रक्षा करने तथा पृथ्वी के भारस्वरूप असुरों का संहार करने की प्रार्थना की थी। इस तरह मैंने यदुवंश में आनकदुन्दुभि के घर अवतार लिया। चूँकि मैं वसुदेव का पुत्र हूँ इसलिए लोग मुझे वासुदेव कहते हैं। |
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श्लोक 41: मैंने कालनेमि का वध किया है, जो कंस रूप में फिर से जन्मा था। साथ ही मैंने प्रलम्ब तथा पुण्यात्मा लोगों के अन्य शत्रुओं का भी संहार किया है। और अब हे राजन्, यह बर्बर तुम्हारी तीक्ष्ण चितवन से जल कर भस्म हो गया है। |
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श्लोक 42: चूँकि भूतकाल में तुमने मुझसे बारम्बार प्रार्थना की थी इसलिए मैं स्वयं तुम पर अनुग्रह दर्शाने के लिए इस गुफा में आया हूँ, क्योंकि मैं अपने भक्तों के प्रति वत्सल रहता हूँ। |
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श्लोक 43: हे राजर्षि, अब मुझसे कुछ वर ले लो। मैं तुम्हारी समस्त इच्छाएँ पूरी कर दूँगा। जो मुझे प्रसन्न कर लेता है, उसे फिर कभी शोक नहीं करना पड़ता। |
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श्लोक 44: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : यह सुनकर मुचुकुन्द ने भगवान् को प्रणाम किया। गर्ग मुनि के वचनों का स्मरण करते हुए उसने कृष्ण को भगवान् नारायण रूप में हर्षपूर्वक पहचान लिया। फिर राजा ने उनसे इस प्रकार कहा। |
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श्लोक 45: श्री मुचुकुन्द ने कहा : हे प्रभु, इस जगत के सभी स्त्री-पुरुष आपकी मायाशक्ति के द्वारा मोहग्रस्त हैं। वे अपने असली लाभ से अनजान रहते हुए आपको न पूजकर अपने को कष्टों के मूल स्रोत अर्थात् पारिवारिक मामलों में फँसाकर सुख की तलाश करते हैं। |
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श्लोक 46: उस मनुष्य का मन अशुद्ध होता है, जो अत्यन्त दुर्लभ एवं अत्यन्त विकसित मनुष्य-जीवन के येन-केन-प्रकारेण स्वत: प्राप्त होने पर भी आपके चरणकमलों की पूजा नहीं करता। ऐसा व्यक्ति अंधे कुएँ में गिरे हुए पशु के समान, भौतिक घरबार रूपी अंधकार में गिर जाता है। |
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श्लोक 47: हे अजित, मैंने पृथ्वी के राजा के रूप में अपने राज्य तथा वैभव के मद में अधिकाधिक उन्मक्त होकर सारा समय गँवा दिया है। मर्त्य शरीर को आत्मा मानते हुए तथा संतानों, पत्नियों, खजाना तथा भूमि में आसक्त होकर मैंने अनन्त क्लेश भोगा है। |
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श्लोक 48: अत्यन्त गर्वित होकर मैंने अपने को शरीर मान लिया था, जो घड़े या दीवाल जैसी एक भौतिक वस्तु है। अपने को मनुष्यों में देवता समझ कर मैंने अपने सारथियों, हाथियों, अश्वारोहियों, पैदल सैनिकों तथा सेनापतियों से घिरकर और अपने प्रवंचित गर्व के कारण आपकी अवमानना करते हुए पृथ्वी भर में विचरण किया। |
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श्लोक 49: करणीय के विचारों में लीन, अत्यन्त लोभी तथा इन्द्रिय-भोग से प्रसन्न रहने वाले मनुष्य का सदा सतर्क रहने वाले आपसे अचानक सामना होता है। जैसे भूखा साँप चूहे के आगे अपने विषैले दाँतों को चाटता है उसी तरह आप उसके समक्ष मृत्यु के रूप में प्रकट होते हैं। |
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श्लोक 50: जो शरीर पहले भयानक हाथियों या सोने से सजाये हुए रथों पर सवार होता है और ‘राजा’ के नाम से जाना जाता है, वही बाद में आपकी अजेय काल-शक्ति से मल, कृमि या भस्म कहलाता है। |
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श्लोक 51: समस्त दिग-दिगान्तरों को जीत कर और इस तरह लड़ाई से मुक्त होकर मनुष्य भव्य राज सिंहासन पर आसीन होता है और अपने उन नायको से प्रशंसित होता है, जो किसी समय उसके बराबर थे। किन्तु जब वह स्त्रियों के कक्ष में प्रवेश करता है जहाँ संभोग-सुख पाया जाता है, तो हे प्रभु, वह पालतू पशु की तरह हाँका जाता है। |
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श्लोक 52: जो राजा पहले से प्राप्त शक्ति से भी और अधिक शक्ति (अधिकार) की कामना करता है, वह तपस्या करके तथा इन्द्रिय-भोग का परित्याग करके कठोरता से अपने कर्तव्य पूरा करता है। किन्तु जिसके वेग (तृष्णाएँ) यह सोचते हुए कि “मैं स्वतंत्र तथा सर्वोच्च हूँ,” इतने प्रबल हैं, वह कभी सुख प्राप्त नहीं कर सकता। |
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श्लोक 53: हे अच्युत, जब भ्रमणशील आत्मा (जीव) का भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है, तो वह आपके भक्तों की संगति प्राप्त कर सकता है। और जब वह उनकी संगति करता है, तो भक्तों के लक्ष्य और समस्त कारणों तथा उनके प्रभावों के स्वामी आपके प्रति उसमें भक्ति उत्पन्न होती है। |
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श्लोक 54: हे प्रभु, मैं सोचता हूँ कि आपने मुझ पर कृपा की है क्योंकि आपने साम्राज्य के प्रति मेरी आसक्ति अपने आप समाप्त हो गई है। ऐसी मुक्ति (स्वतंत्रता) के लिए विशाल साम्राज्य के साधु शासकों द्वारा प्रार्थना की जाती है, जो एकान्त जीवन बिताने के लिए जंगल में जाना चाहते हैं। |
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श्लोक 55: हे सर्वशक्तिमान, मैं आपके चरणकमलों की सेवा के अतिरिक्त और किसी वर की कामना नहीं करता क्योंकि यह वर उन लोगों के द्वारा उत्सुकतापूर्वक चाहा जाता है, जो भौतिक कामनाओं से मुक्त हैं। हे हरि! ऐसा कौन प्रबुद्ध व्यक्ति होगा जो मुक्तिदाता अर्थात् आपकी पूजा करते हुए ऐसा वर चुनेगा जो उसका ही बन्धन बने? |
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श्लोक 56: इसलिए हे प्रभु, उन समस्त भौतिक इच्छाओं को त्यागकर जो रजो, तमो तथा सतो गुणों से बद्ध हैं, मैं शरण लेने के लिए आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से प्रार्थना कर रहा हूँ। आप संसारी उपाधियों से प्रच्छन्न नहीं हैं, प्रत्युत आप शुद्ध ज्ञान से पूर्ण तथा भौतिक गुणों से परे परम सत्य हैं। |
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श्लोक 57: इतने दीर्घकाल से मैं इस जगत में कष्टों से पीडि़त होता रहा हूँ और शोक से जलता रहा हूँ। मेरे छह शत्रु कभी भी तृप्त नहीं होते और मुझे शान्ति नहीं मिल पाती। अत: हे शरणदाता, हे परमात्मा! मेरी रक्षा करें। हे प्रभु, सौभाग्य से इतने संकट के बीच मैं आपके चरणकमलों तक पहुँचा हूँ, जो सत्य रूप हैं और जो निर्भय तथा शोक-रहित बनाने वाले हैं। |
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श्लोक 58: भगवान् ने कहा : हे सम्राट, महान् राजा, तुम्हारा मन शुद्ध तथा सामर्थ्यवान है। यद्यपि मैंने वरों के द्वारा तुम्हें प्रलोभित करना चाहा किन्तु तुम्हारा मन भौतिक इच्छाओं के वशीभूत नहीं हुआ। |
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श्लोक 59: यह जान लो कि मैं यह सिद्ध करने के लिए तुम्हें वरों से प्रलोभन दे रहा था कि तुम धोखा नहीं खा सकते। मेरे शुद्ध भक्त की बुद्धि कभी भी भौतिक आशीर्वादों से विपथ नहीं होती। |
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श्लोक 60: ऐसे अभक्तगण जो प्राणायाम जैसे अभ्यासों में लगते हैं उनके मन भौतिक इच्छाओं से कभी विमल नहीं होते। इस तरह हे राजन्, उनके मन में भौतिक इच्छाएँ पुन: उठती हुई देखी गई हैं। |
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श्लोक 61: अपना मन मुझमें स्थिर करके तुम इच्छानुसार इस पृथ्वी पर विचरण करो। मुझमें तुम्हारी ऐसी अविचल भक्ति सदैव बनी रहे। |
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श्लोक 62: चूँकि तुमने क्षत्रिय के सिद्धान्तों का पालन किया है, अत: शिकार करते तथा अन्य कार्य सम्पन्न करते समय तुमने जीवों का वध किया है। तुम्हें चाहिए कि सावधानी के साथ तपस्या करते हुए तथा मेरे शरणागत रहते हुए इस तरह से किए हुए पापों को मिटा डालो। |
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श्लोक 63: हे राजन्, तुम अगले जीवन में श्रेष्ठ ब्राह्मण, समस्त जीवों के सर्वोत्तम शुभचिन्तक बनोगे और अवश्य ही मेरे पास आओगे। |
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