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अध्याय 52: भगवान् कृष्ण के लिए रुक्मिणी-संदेश |
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संक्षेप विवरण: इस अध्याय में बतलाया गया है कि किस तरह बलराम तथा कृष्ण मानो भयभीत होकर द्वारका चले गये। तब कृष्ण ने एक ब्राह्मण के मुख से रुक्मिणी का सन्देश सुना और उसे अपनी पत्नी... |
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श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा, इस प्रकार कृष्ण द्वारा दया दिखाये गये मुचुकुन्द ने उनकी प्रदक्षिणा की और उन्हें नमस्कार किया। तब इक्ष्वाकुवंशी प्रिय मुचुकुन्द गुफा के मुँह से होकर बाहर आये। |
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श्लोक 2: यह देखकर कि सभी मनुष्यों, पशुओं, लताओं तथा वृक्षों के आकार अत्यधिक छोटे हो गये हैं और इस तरह यह अनुभव करते हुए कि कलियुग सन्निकट है, मुचुकुन्द उत्तर दिशा की ओर चल पड़े। |
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श्लोक 3: भौतिक संगति से परे तथा सन्देह से मुक्त सौम्य राजा तपस्या के महत्व के प्रति विश्वस्त था। अपने मन को कृष्ण में लीन करते हुए वह गन्धमादन पर्वत पर आया। |
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श्लोक 4: वहाँ वह नर-नारायण के धाम बदरिकाश्रम आया जहाँ पर समस्त द्वन्द्वों को सहते हुए उसने कठोर तपस्या करके भगवान् हरि की शान्तिपूर्वक पूजा की। |
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श्लोक 5: भगवान् मथुरा नगरी लौट आये जो अब भी यवनों से घिरी थी। तत्पश्चात् उन्होंने बर्बर यवनों की सेना नष्ट की और उन यवनों की बहुमूल्य वस्तुएँ द्वारका ले गये। |
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श्लोक 6: जब यह सम्पदा भगवान् कृष्ण के आदेशानुसार बैलों तथा मनुष्यों द्वारा ले जाई जा रही थी तो जरासन्ध तेईस सैन्यटुकडिय़ों के प्रधान के रूप में वहाँ प्रकट हुआ। |
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श्लोक 7: हे राजन्, शत्रु की सेना की भयंकर हलचल को देखकर माधव-बन्धु मनुष्य का-सा व्यवहार करते हुए तेजी से भाग गये। |
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श्लोक 8: प्रचुर सम्पत्ति को छोड़ कर निर्भय किन्तु भय का स्वाँग करते हुए वे अपने कमलवत् चरणों से पैदल अनेक योजन चलते गये। |
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श्लोक 9: उन दोनों को भागते देखकर शक्तिशाली जरासन्ध अट्टाहास करने लगा और सारथियों तथा पैदल सैनिकों को साथ लेकर उनका पीछा करने लगा। वह दोनों प्रभुओं के उच्च पद को समझ नहीं सका। |
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श्लोक 10: काफी दूरी तक भागने से थक कर चूर-चूर दिखते हुए दोनों प्रभु प्रवर्षण नामक ऊँचे पर्वत पर चढ़ गये जिस पर इन्द्र निरंतर वर्षा करता है। |
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श्लोक 11: यद्यपि जरासन्ध जानता था कि वे दोनों ही पर्वत में छिपे हैं किन्तु उसे उनका कोई पता नहीं चल सका। अत: हे राजा, उसने सभी ओर लकडिय़ाँ रखकर पर्वत में आग लगा दी। |
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श्लोक 12: तब वे दोनों सहसा उस जलते हुए ग्यारह योजन ऊँचे पर्वत से नीचे कूद कर जमीन पर आ गिरे। |
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श्लोक 13: अपने प्रतिपक्षी या उसके अनुचरों द्वारा न दिखने पर, हे राजन्, वे दोनों यदु श्रेष्ठ अपनी द्वारकापुरी लौट गये जिसकी सुरक्षा-खाई समुद्र थी। |
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श्लोक 14: यही नहीं, जरासन्ध ने गलती से सोचा कि बलराम तथा कृष्ण अग्नि में जल कर मर गये हैं। अत: उसने अपनी विशाल सेना पीछे हटा ली और मगध राज्य को लौट गया। |
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श्लोक 15: ब्रह्मा के आदेश से आनर्त के वैभवशाली राजा रैवत ने अपनी पुत्री रैवती का विवाह बलराम से कर दिया। इसका उल्लेख पहले ही हो चुका है। |
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श्लोक 16-17: हे कुरुवीर, भगवान् गोविन्द ने भीष्मक की पुत्री वैदर्भी (रुक्मिणी) से विवाह किया जो साक्षात् लक्ष्मी की अंश थी। भगवान् ने उसकी इच्छा से ही ऐसा किया और इस कार्य के लिए उन्होंने शाल्व तथा शिशुपाल के पक्षधर अन्य राजाओं को परास्त किया। दरअसल सबों के देखते देखते श्रीकृष्ण रुक्मिणी को उसी तरह उठा ले गये जिस तरह नि:शंक गरुड़ देवताओं से अमृत चुरा कर ले आया था। |
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श्लोक 18: राजा परीक्षित ने कहा : मैंने सुना है कि भगवान् ने भीष्मक की सुमुखी पुत्री रुक्मिणी से राक्षस-विधि से विवाह किया। |
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श्लोक 19: हे प्रभु, मैं यह सुनने का इच्छुक हूँ कि असीम बलशाली भगवान् कृष्ण किस तरह मागध तथा शाल्व जैसे राजाओं को हराकर अपनी दुलहन को हर ले गये। |
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श्लोक 20: हे ब्राह्मण, ऐसा कौन-सा अनुभवी श्रोता होगा जो श्रीकृष्ण की पवित्र, मनोहर तथा नित्य नवीन कथाओं को, जो संसार के कल्मष को धो देने वाली हैं, सुनकर कभी तृप्त हो सकेगा? |
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श्लोक 21: श्री बादरायणि ने कहा : भीष्मक नामक एक राजा था, जो विदर्भ का शक्तिशाली शासक था। उसके पाँच पुत्र तथा एक सुमुखी पुत्री थी। |
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श्लोक 22: रुक्मी सबसे बड़ा पुत्र था, उसके बाद रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेश तथा रुक्ममाली थे। उनकी बहिन सती रुक्मिणी थी। |
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श्लोक 23: महल में आने वालों के मुख से जो प्राय: मुकुन्द के बारे में गुणगान करते थे, मुकुन्द के सौन्दर्य, पराक्रम, दिव्य चरित्र तथा ऐश्वर्य के बारे में सुनकर, रुक्मिणी ने निश्चय किया कि वे ही उसके उपयुक्त पति होंगे। |
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श्लोक 24: भगवान् कृष्ण जानते थे कि रुक्मिणी बुद्धि, शुभ शारीरिक चिह्न, सौन्दर्य, उचित व्यवहार तथा अन्य उत्तम गुणों से युक्त है। यह निष्कर्ष निकाल करके कि वह उनके योग्य एक आदर्श पत्नी होगी, कृष्ण ने उससे विवाह करने का निश्चय किया। |
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श्लोक 25: हे राजन्, चूँकि रुक्मी भगवान् से द्वेष रखता था अतएव उसने अपने परिवार वालों को, उनकी इच्छा के विपरीत, अपनी बहन कृष्ण को दिये जाने से रोका। उल्टे रुक्मी ने रुक्मिणी को शिशुपाल को देने का निश्चय किया। |
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श्लोक 26: श्याम-नेत्रों वाली वैदर्भी इस योजना से अवगत थी अत: वह इससे अत्यधिक उदास थी। उसने सारी परिस्थिति पर विचार करते हुए तुरन्त ही कृष्ण के पास एक विश्वासपात्र ब्राह्मण को भेजा। |
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श्लोक 27: द्वारका पहुँचने पर उस ब्राह्मण को द्वारपाल भीतर ले गये जहाँ उसने आदि-भगवान् को सोने के सिंहासन पर आसीन देखा। |
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श्लोक 28: ब्राह्मण को देखकर, ब्राह्मणों के प्रभु श्रीकृष्ण अपने सिंहासन से नीचे उतर आये और उसे बैठाया। तत्पश्चात् भगवान् ने उसकी उसी तरह पूजा की जिस तरह वे स्वयं देवताओं द्वारा पूजित होते हैं। |
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श्लोक 29: जब वह ब्राह्मण खा-पीकर आराम कर चुका तो साधु-भक्तों के ध्येय श्रीकृष्ण उसके पास आये और अपने हाथों से उस ब्राह्मण के पाँवों को दबाते हुए बड़े ही धैर्य के साथ इस प्रकार पूछा। |
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श्लोक 30: [भगवान् ने कहा] : हे ब्राह्मण-श्रेष्ठ, आपके गुरुजनों द्वारा अनुमोदित धार्मिक अनुष्ठान बिना किसी बड़ी कठिनाई के चल तो रहे हैं न? आपका मन सदैव संतुष्ट तो रहता है न? |
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श्लोक 31: जो कुछ भी मिल जाय उससे सन्तुष्ट हो जाना और अपने धार्मिक कर्तव्य से च्युत नहीं होना ये धार्मिक सिद्धान्त ब्राह्मण की सारी इच्छाओं को पूरी करने वाली कामधेनु बन जाते हैं। |
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श्लोक 32: असन्तुष्ट ब्राह्मण स्वर्ग का राजा बन जाने पर भी एक लोक से दूसरे लोक में बेचैन होकर भटकता रहता है। किन्तु संतुष्ट ब्राह्मण, अपने पास कुछ न होने पर भी शान्तिपूर्वक विश्राम करता है और उसके सारे अंग कष्ट से मुक्त रहते हैं। |
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श्लोक 33: मैं उन ब्राह्मणों को बारम्बार अपना शीश नवाता हूँ जो अपने भाग्य से संतुष्ट हैं। साधु, अहंकारशून्य तथा शान्त होने से वे समस्त जीवों के सर्वोत्तम शुभचिन्तक हैं। |
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श्लोक 34: हे ब्राह्मण, आपका राजा आप लोगों के कुशल-मंगल का ध्यान तो रखता है? निस्सन्देह, जिस राजा के देश में प्रजा सुखी तथा सुरक्षित है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है। |
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श्लोक 35: दुर्लंघ्य समुद्र पार करके आप कहाँ से और किस कार्य से यहाँ आये हैं? यदि यह गुप्त न हो तो हमें बतलाइये और यह कहिये कि आपके लिए हम क्या कर सकते हैं? |
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श्लोक 36: अपनी लीला सम्पन्न करने के लिए अवतार लेने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् द्वारा इस तरह पूछे जाने पर ब्राह्मण ने उन्हें सारी बात बता दी। |
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श्लोक 37: [ब्राह्मण द्वारा पढ़े जा रहे अपने पत्र में] श्री रुक्मिणी ने कहा : हे जगतों के सौन्दर्य, आपके गुणों के विषय में सुनकर जो कि सुनने वालों के कानों में प्रवेश करके उनके शारीरिक ताप को दूर कर देते हैं और आपके सौन्दर्य के बारे में सुनकर कि वह देखने वाले की सारी दृष्टि सम्बन्धी इच्छाओं को पूरा करता है, हे कृष्ण, मैंने अपना निर्लज्ज मन आप पर स्थिर कर दिया है। |
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श्लोक 38: हे मुकुन्द, आप वंश, चरित्र, सौन्दर्य, ज्ञान, युवावस्था, सम्पदा तथा प्रभाव में केवल अपने समान हैं। हे पुरुषों में सिंह, आप सारी मानवता के मन को आनन्दित करते हैं। उपयुक्त समय आ जाने पर ऐसी कौन-सी राजकुल की धीर तथा विवाहयोग्य कन्या होगी जो आपको पति रूप में नहीं चुनेगी? |
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श्लोक 39: अतएव हे प्रभु, मैंने आपको अपने पति-रूप में चुना है और मैं आपकी शरण में आई हूँ। हे सर्वशक्तिमान, तुरन्त आइये और मुझे अपनी पत्नी बना लीजिये। हे मेरे कमल-नेत्र स्वामी, किसी सिंह की सम्पत्ति को चुराने वाले सियार जैसे शिशुपाल को एक वीर के अंश को कभी छूने न दीजिये। |
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श्लोक 40: यदि मैंने पुण्य कर्म, यज्ञ, दान, अनुष्ठान-व्रत के साथ साथ देवताओं, ब्राह्मणों तथा गुरुओं की पूजा द्वारा भगवान् की पर्याप्त रूप से उपासना की हो तो हे गदाग्रज, आप आकर मेरा हाथ ग्रहण करें और दमघोष का पुत्र या कोई अन्य ग्रहण न करने पाये। |
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श्लोक 41: हे अजित, कल जब मेरा विवाहोत्सव प्रारम्भ हो तो आप विदर्भ में अपनी सेना के नायकों से घिर कर गुप्त रूप से आयें। तत्पश्चात् चैद्य तथा मगधेन्द्र की सेनाओं को कुचल कर अपने पराक्रम से मुझे जीत कर राक्षस विधि से मेरे साथ विवाह कर लें। |
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श्लोक 42: चूँकि मैं रनिवास के भीतर रहूँगी अत: आप आश्चर्य करेंगे और सोचेंगे कि “मैं तुम्हारे कुछ सम्बन्धियों को मारे बिना तुम्हें कैसे ले जा सकता हूँ?” किन्तु मैं आपको एक विधि बतलाऊँगी: विवाह के एक दिन पूर्व राजकुल के देवता के सम्मान में एक विशाल जुलूस निकलेगा जिसमें दुलहन नगर के बाहर देवी गिरिजा का दर्शन करने जाती है। |
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श्लोक 43: “हे कमल-नयन, शिवजी जैसे महात्मा आपके चरणकमलों की धूलि में स्नान करके अपने अज्ञान को नष्ट करना चाहते हैं। यदि मुझे आपकी कृपा प्राप्त नहीं होती तो मैं अपने उस प्राण को त्याग दूँगी जो मेरे द्वारा की जाने वाली कठिन तपस्या के कारण क्षीण हो चुका होगा। तब कहीं सैकड़ों जन्मों तक परिश्रम करने के बाद शायद आपकी कृपा प्राप्त हो सके।” |
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श्लोक 44: ब्राह्मण ने कहा, हे यदु-देव, मैं यह गोपनीय संदेश अपने साथ लाया हूँ। कृपया सोचें- विचारें कि इन परिस्थितियों में क्या किया जाना चाहिये और उसे तुरन्त ही कीजिये। |
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