श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 52: भगवान् कृष्ण के लिए रुक्मिणी-संदेश  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  10.52.10 
प्रद्रुत्य दूरं संश्रान्तौ तुङ्गमारुहतां गिरिम् ।
प्रवर्षणाख्यं भगवान् नित्यदा यत्र वर्षति ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
प्रद्रुत्य—पूरे वेग से दौडक़र; दूरम्—काफी दूरी; संश्रान्तौ—थके हुए; तुङ्गम्—खूब ऊँचे; आरुहताम्—चढ़ गये; गिरिम्—पर्वत पर; प्रवर्षण-आख्यम्—प्रवर्षण नामक; भगवान्—इन्द्र; नित्यदा—सदैव; यत्र—जहाँ; वर्षति—वर्षा करता है ।.
 
अनुवाद
 
 काफी दूरी तक भागने से थक कर चूर-चूर दिखते हुए दोनों प्रभु प्रवर्षण नामक ऊँचे पर्वत पर चढ़ गये जिस पर इन्द्र निरंतर वर्षा करता है।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥