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श्लोक 10.52.10  |
प्रद्रुत्य दूरं संश्रान्तौ तुङ्गमारुहतां गिरिम् ।
प्रवर्षणाख्यं भगवान् नित्यदा यत्र वर्षति ॥ १० ॥ |
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शब्दार्थ |
प्रद्रुत्य—पूरे वेग से दौडक़र; दूरम्—काफी दूरी; संश्रान्तौ—थके हुए; तुङ्गम्—खूब ऊँचे; आरुहताम्—चढ़ गये; गिरिम्—पर्वत पर; प्रवर्षण-आख्यम्—प्रवर्षण नामक; भगवान्—इन्द्र; नित्यदा—सदैव; यत्र—जहाँ; वर्षति—वर्षा करता है ।. |
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अनुवाद |
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काफी दूरी तक भागने से थक कर चूर-चूर दिखते हुए दोनों प्रभु प्रवर्षण नामक ऊँचे पर्वत पर चढ़ गये जिस पर इन्द्र निरंतर वर्षा करता है। |
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