श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 52: भगवान् कृष्ण के लिए रुक्मिणी-संदेश  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  10.52.2 
संवीक्ष्य क्षुल्ल‍कान् मर्त्यान् पशून्वीरुद्वनस्पतीन् ।
मत्वा कलियुगं प्राप्तं जगाम दिशमुत्तराम् ॥ २ ॥
 
शब्दार्थ
संवीक्ष्य—देखकर; क्षुल्लकान्—छोटे छोटे; मर्त्यान्—मनुष्यों को; पशून्—पशुओं को; वीरुत्—लताओं; वनस्पतीन्—तथा वृक्षों को; मत्वा—मान कर; कलि-युगम्—कलियुग को; प्राप्तम्—आया हुआ; जगाम—चला गया; दिशम्—दिशा में; उत्तराम्—उत्तरी ।.
 
अनुवाद
 
 यह देखकर कि सभी मनुष्यों, पशुओं, लताओं तथा वृक्षों के आकार अत्यधिक छोटे हो गये हैं और इस तरह यह अनुभव करते हुए कि कलियुग सन्निकट है, मुचुकुन्द उत्तर दिशा की ओर चल पड़े।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में कई महत्त्वपूर्ण शब्द हैं। संस्कृत के एक प्रमाणित कोश में क्षुल्लक के “क्षुद्र, निम्न, निर्धन, दुष्ट, द्वेषी, परित्यक्त, दुखित” इत्यादि अर्थ पाये जाते हैं। ये सारे लक्षण कलियुग के हैं और ये सारे गुण मनुष्यों, पशुओं, पौधों तथा वृक्षों में पाये जाते हैं। हम लोग, जो अपने और अपने पर्यावरण के प्रति इतने मुग्ध हैं, पहले के युगों के श्रेष्ठ सौन्दर्य तथा उस समय की जीवित अवस्थाओं की कदाचित कल्पना कर सकते हैं।

अन्तिम चरण में जगाम दिशम् उत्तराम् को इस प्रकार समझा जा सकता है—भारत की उत्तर दिशा में जाने पर सबसे ऊँची हिमालय की पर्वत श्रेणी मिलती है। आज भी वहाँ अनेक सुन्दर चोटियाँ तथा घाटियाँ हैं जहाँ तपस्या तथा ध्यान के योग्य शान्त कुटियाँ हैं। इस तरह वैदिक संस्कृति में “उत्तर दिशा में जाने” का अर्थ होता है सामान्य समाज की सुविधाओं को त्याग कर आध्यात्मिक उन्नति के लिए कठोर तपस्या करने के लिए हिमालय पर्वत में जाना।

 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥