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श्लोक 10.52.27  |
द्वारकां स समभ्येत्य प्रतीहारै: प्रवेशित: ।
अपश्यदाद्यं पुरुषमासीनं काञ्चनासने ॥ २७ ॥ |
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शब्दार्थ |
द्वारकाम्—द्वारका में; स:—वह (ब्राह्मण); समभ्येत्य—पहुँच कर; प्रतीहारै:—द्वारपालों के द्वारा; प्रवेशित:—भीतर लाया गया; अपश्यत्—देखा; आद्यम्—आदि; पुरुषम्—परम पुरुष को; आसीनम्—आसीन, बैठा; काञ्चन—सुनहरे; आसने— सिंहासन पर ।. |
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अनुवाद |
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द्वारका पहुँचने पर उस ब्राह्मण को द्वारपाल भीतर ले गये जहाँ उसने आदि-भगवान् को सोने के सिंहासन पर आसीन देखा। |
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