श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 52: भगवान् कृष्ण के लिए रुक्मिणी-संदेश  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  10.52.32 
असन्तुष्टोऽसकृल्ल‍ोकानाप्नोत्यपि सुरेश्वर: ।
अकिञ्चनोऽपि सन्तुष्ट: शेते सर्वाङ्गविज्वर: ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
असन्तुष्ट:—असन्तुष्ट; असकृत्—बारम्बार; लोकान्—विविध लोकों को; आप्नोति—प्राप्त करता है; अपि—यद्यपि; सुर— देवताओं का; ईश्वर:—स्वामी; अकिञ्चन:—निर्धन; अपि—होते हुए भी; सन्तुष्ट:—सन्तुष्ट; शेते—सोता है; सर्व—सारे; अङ्ग— शरीर के अंग; विज्वर:—दुख से रहित ।.
 
अनुवाद
 
 असन्तुष्ट ब्राह्मण स्वर्ग का राजा बन जाने पर भी एक लोक से दूसरे लोक में बेचैन होकर भटकता रहता है। किन्तु संतुष्ट ब्राह्मण, अपने पास कुछ न होने पर भी शान्तिपूर्वक विश्राम करता है और उसके सारे अंग कष्ट से मुक्त रहते हैं।
 
तात्पर्य
 जो लोग असन्तुष्ट हैं उनके सारे शरीर में पीड़ा का अनुभव होता है और वे अनेक रोगों के शिकार हो जाते हैं। किन्तु सन्तुष्ट ब्राह्मण, चाहे उसके पास कुछ भी न हो, शान्त तथा स्थिर रहता है और उसके शरीर या मन में कोई कष्ट नहीं रहता।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥