श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 52: भगवान् कृष्ण के लिए रुक्मिणी-संदेश  »  श्लोक 37
 
 
श्लोक  10.52.37 
श्रीरुक्‍मिण्युवाच
श्रुत्वा गुणान् भुवनसुन्दर श‍ृण्वतां ते
निर्विश्य कर्णविवरैर्हरतोऽङ्गतापम् ।
रूपं द‍ृशां द‍ृशिमतामखिलार्थलाभं
त्वय्यच्युताविशति चित्तमपत्रपं मे ॥ ३७ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-रुक्मिणी उवाच—श्री रुक्मिणी ने कहा; श्रुत्वा—सुनकर; गुणान्—गुणों को; भुवन—सारे लोकों के; सुन्दर—हे सौन्दर्य; शृण्वताम्—सुनने वालों के लिए; ते—तुम्हारा; निर्विश्य—प्रवेश करके; कर्ण—कानों के; विवरै:—छेदों से; हरत:—हटाते हुए; अङ्ग—उनके शरीरों की; तापम्—पीड़ा; रूपम्—सौन्दर्य; दृशाम्—देखने की इन्द्रिय का; दृशि-मताम्—आँख वालों का; अखिल—समग्र; अर्थ—इच्छापूर्ति का; लाभम्—प्राप्ति; त्वयि—तुममें; अच्युत—हे अच्युत कृष्ण; आविशति—प्रवेश करती है; चित्तम्—चित्त में; अपत्रपम्—निर्लज्ज; मे—मेरे ।.
 
अनुवाद
 
 [ब्राह्मण द्वारा पढ़े जा रहे अपने पत्र में] श्री रुक्मिणी ने कहा : हे जगतों के सौन्दर्य, आपके गुणों के विषय में सुनकर जो कि सुनने वालों के कानों में प्रवेश करके उनके शारीरिक ताप को दूर कर देते हैं और आपके सौन्दर्य के बारे में सुनकर कि वह देखने वाले की सारी दृष्टि सम्बन्धी इच्छाओं को पूरा करता है, हे कृष्ण, मैंने अपना निर्लज्ज मन आप पर स्थिर कर दिया है।
 
तात्पर्य
 रुक्मिणी एक राजा की पुत्री थी, वह साहसी तथा निडर थी और वह कृष्ण के प्राप्त न होने पर मरना पसन्द करती। यह सब विचार करके उसने एक स्पष्ट खुला पत्र लिखा जिसमें कृष्ण से याचना की गई थी कि वे आकर उसे ले जाँय।
 
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