श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 52: भगवान् कृष्ण के लिए रुक्मिणी-संदेश  »  श्लोक 41
 
 
श्लोक  10.52.41 
श्वोभाविनि त्वमजितोद्वहने विदर्भान्
गुप्त: समेत्य पृतनापतिभि: परीत: ।
निर्मथ्य चैद्यमगधेन्द्रबलं प्रसह्य
मां राक्षसेन विधिनोद्वह वीर्यशुल्काम् ॥ ४१ ॥
 
शब्दार्थ
श्व: भाविनि—कल; त्वम्—तुम; अजित—हे अजेय; उद्वहने—विवाहोत्सव के समय; विदर्भान्—विदर्भ में; गुप्त:—अदृश्य; समेत्य—आकर; पृतना—अपनी सेना के; पतिभि:—नायकों द्वारा; परीत:—घिरा हुआ; निर्मथ्य—दलन करके; चैद्य—शिशुपाल; मगध-इन्द्र—तथा मगध का राजा, जरासन्ध की; बलम्—सैन्य-शक्ति; प्रसह्य—बलपूर्वक; माम्—मुझको; राक्षसेन विधिना—राक्षस विधि से; उद्वह—विवाह करके ले जाओ; वीर्य—अपने पराक्रम के; शुल्काम्—मूल्य रूप में ।.
 
अनुवाद
 
 हे अजित, कल जब मेरा विवाहोत्सव प्रारम्भ हो तो आप विदर्भ में अपनी सेना के नायकों से घिर कर गुप्त रूप से आयें। तत्पश्चात् चैद्य तथा मगधेन्द्र की सेनाओं को कुचल कर अपने पराक्रम से मुझे जीत कर राक्षस विधि से मेरे साथ विवाह कर लें।
 
तात्पर्य
 श्रील प्रभुपाद ने भगवान् श्रीकृष्ण में इंगित किया है कि राजकुल में उत्पन्न होने के कारण रुक्मिणी को राजनीतिक कामकाज की, निश्चित रूप से, अच्छी पकड़ थी। उन्होंने श्रीकृष्ण को सलाह दी कि वे नगर में अकेले और बिना किसी के देखे प्रवेश करें तथा तब स्वयं अपने सेना-नायकों के बीच में घिर कर रहें जिससे जो भी करना है, उसे वे कर सकें। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ने आने वाले युद्ध की तुलना लक्ष्मी प्राप्त करने के लिए भगवान् द्वारा समुद्र के मंथन से की है। इस तरह श्री-रूपी रुक्मिणी इस मंथन से प्राप्त होंगी।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥